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सत्ता की भूख में नहीं दिखते उम्मीदवारों के दाग, पार्टियों के लिए किसी प्रत्याशी का जिताऊ होना सबसे बड़ी योग्यता

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राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त रखने के लिए चुनाव आयोग किसी न किसी तरीके से राजनीतिक दलों को लगातार हतोत्साहित करने में जुटा है, लेकिन उसकी शक्ति सीमित है। दूसरी ओर, राजनीतिक दलों को जिताऊ उम्मीदवारों की सूची में अपराधी ही आगे दिखते हैं। यही कारण है कि चुनाव आयोग उनसे अगर अपराधी छवि के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने के पीछे तर्क पूछता भी है तो बेहिचक बताया जाता है-वह जिताऊ हैं। यह स्वीकारोक्ति वह जुबानी या चोरी-छिपे नहीं, बल्कि चुनाव आयोग को दिए जाने वाले ब्योरे में कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अमल में पार्टियों को चुनाव आयोग को यह बताना है कि उन्होंने आपराधिक छवि के व्यक्ति को ही उम्मीदवार क्यों बनाया है? साथ ही उनका चयन किस आधार पर किया गया है? हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी साफ किया है कि ऐसे उम्मीदवारों के चयन के पीछे सिर्फ जिताऊ होना आधार नहीं होगा। राजनीतिक दलों को उनकी योग्यता, उपलब्धियों जैसी जानकारी देनी होगी। लेकिन मौजूदा समय में राजनीतिक दल सिर्फ जिताऊ होने शब्द से ही काम चल रहे हैं। किसी कानून के अभाव में आयोग की शक्ति इस मामले में भी उतनी ही सीमित है, जितनी बढ़-चढ़कर किए जाने वाले वादों और मुफ्त सामान बांटने के मामले में।

पिछले कुछ वर्षो के आकंड़ों को देखा जाए तो राजनीति में आपराधिक छवि के लोगों का दखल बढ़ा है। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफा‌र्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 के लोकसभा चुनाव में जीतने वाले 538 प्रत्याशियों के आपराधिक रिकार्ड को खंगाला गया। इसमें पाया गया कि 43 प्रतिशत प्रत्याशियों के ऊपर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से करीब 29 प्रतिशत ऐसे थे, जिनके ऊपर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। हालांकि, 2014 में जीतकर आए उम्मीदवारों में से 542 के ब्योरों की जांच की गई थी तो 34 प्रतिशत ने अपने ऊपर दर्ज आपराधिक मामले घोषित किए थे। इस तरह देखा जाए तो 2014 की तुलना में 2019 में ज्यादा आपराधिक छवि के लोग जीतकर आए।

पिछले साल यानी वर्ष 2021 में बंगाल, केरल, तमिलनाडु सहित पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों की स्थिति और भी चौंकाने वाली है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, केरल में जीतकर आए कुल प्रत्याशियों में से 71 प्रतिशत ने अपने ऊपर आपराधिक मामले घोषित किए थे। इनमें से 27 प्रतिशत के ऊपर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। वहीं बंगाल में जीतकर आए उम्मीदवारों में 49 के ऊपर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें 39 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके ऊपर गंभीर आपराधिक मामले हैं।

चिंताजनक स्थिति यह है कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के दखल के बाद भी राजनीति में आपराधिक छवि के लोगों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे में अब इसे रोकना है तो कड़ा कानून लाना पड़ेगा। साथ ही न्यायालयों में ऐसे लोगों के खिलाफ वर्षो से लंबित मामलों में तेजी भी लानी होगी, ताकि गलत तरीके से फंसाए गए लोग जल्द ही खुद पर लगे मामलों से मुक्त भी हो सकें। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत का मानना है कि आयोग की अपनी कुछ सीमाएं है, जिसमें रहकर ही उसे काम करना होता है। मौजूदा समय में आयोग सिर्फ उम्मीदवारों के चयन का आधार जान सकता है। उन पर दर्ज मामलों का ब्योरा ले सकता है, जिसके नहीं देने पर उन्हें नोटिस भी दे सकता है। लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है, क्योंकि आयोग के पास कोई कानूनी शक्ति नहीं है।

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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