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‘ द कश्मीर फाइल्स’ सेकुलरिज्म की आड़ में धार्मिक तुष्टिकरण का फर्जीवाड़ा

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अनिल धर्मदेश

द कश्मीर फाइल्स देखकर ऐसा लगा मानो इस देश में सेक्युलरिज्म की आड़ में धार्मिक तुष्टिकरण का फर्जीवाड़ा नेहरू-गांधी से लेकर मनमोहन सरकार तक कभी था ही नहीं। बल्कि यह अप्राकृतिक व आपराधिक बीमारी कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद अस्तित्व में आयी है।

दशकों से पूरे देश में जारी छद्म सेक्युलरिज्म का नक्सली षड्यंत्र उस दौर की पटकथा में कहीं ढँक-सा गया है। लगभग पौने तीन घंटे खयाल ही नहीं आया कि आज जैसे ही छद्म आदर्शवादी उस वक्त भी समाज में उपस्थित रहे होंगे। जिन्होनें स्थिति की गंभीरता को दूर से भांपने वालों का मजाक उड़ाया होगा। जाग्रत वर्ग को झुठलाने की हर कोशिश की गयी होगी। फिल्म में यह महत्वपूर्ण किरदार अनुपस्थित रह गया है।

मौका मिले तो हिरण, पीछे से शिकार के लिए झपटे लकड़बग्घे को लत्ती मारने से नहीं चूकता। शिकारी का प्रतिरोध नहीं कर पाने के कारण वह तेजी से दूर भगाता है। फिल्म में घाटी के पंडितों को इतना अहिंसक दिखाया गया है, जिससे एक कायरता का भाव भी परिलक्षित होता है। दर्शक नहीं समझ सके कि एटम बम के सामने चाकू लेकर सड़क पर निकलने से कुछ नहीं मिलता, इसलिए कश्मीरी पंडित प्रतिरोध नहीं कर सके।

सिंडिकेट का सच कहीं नेपथ्य में छूट गया। शासन-सत्ता और पुलिस-प्रशासन जब बड़ी आबादी का अनैतिक साथ देने को आतुर हों तो आत्महत्या की जा सकती है, हत्या नहीं। विदेशी फंडिंग, प्रशिक्षण सहित हथियार और राज्य की सत्ता के दोनों महत्वपूर्ण पदों(सीएम, एचएम) पर अपने मोहरे फिट हों तो 10-20 फीसद आबादी लाशों का टीला तो बन सकती है, संघर्ष नहीं कर सकती।

फिल्म का प्रसार और सफलता रोकने के लिए हर कोशिश में जुटे बॉलीवुड सिंडिकेट से पूरा देश इस बार अवगत हो गया, यह भी इस फिल्म की एक महत्वपूर्ण सफलता है । फिल्म में वास्तविकता को संभवतः 10 फीसद ही दिखाया गया, फिर भी इतना विरोध? ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि दृश्यों को अतिशय सांकेतिकता देने के बजाय पूरी स्पष्टता देना ही उचित होता। अपराधियों का संरक्षण करने वालों का तुष्टिकरण करने के चक्कर में समाज एक त्रासदी की वास्तविकता से बहुत हद तक अनभिज्ञ भी रह गया।

कमलेश्वर की ‘कितने पाकिस्तान’ की तर्ज पर मीडिया, पुलिस-प्रशासन और समाज से तत्कालीन प्रत्यक्षदर्शियों का वर्तमान में सर्वश्रेष्ठ संयोजन किया गया है। प्रत्येक किरदार का संवाद उसके कार्यक्षेत्र के अनुभव और व्यक्तित्व के अनुरूप है। (‘मगर कश्मीरी पंडितों ने तो कभी हथियार नहीं उठाया’)

अमीश की ‘मेल्हुआ के मृत्यंजय’ के बाद किरदार के व्यक्तित्व अनुरूप संवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, जैसा बहुत बड़ी और महंगी फिल्मों में भी मुश्किल से देखने को मिलता है।

‘द डार्क नाइट’ के जोकर की तरह पल्लवी जोशी ने राधिका मेनन के किरदार को जिस प्रकार निभाया है, वह अद्वितीय है। दर्शक एक ही समय पर खलनायक से लगाव और द्वेष दोनों रखता है। दृश्यात्मक संकेत के रूप में ‘बंदूक तक पहुँच हो और कोई बिट्टा सामने दिखे तो गोली मार देनी चाहिए। क्योंकि सरकार चाहे कोई भी हो, इको सिस्टम पर कब्जा “हमारा”उनका’ ही है।’ अद्वितीय है।

निर्देशक Vivek Agnihotri ने मीडिया के पक्षपात और पेड मीडिया की बेशर्मी को पटकथा व संवादों में इतने कम समय व शब्दों में उघाड़ दिया है, इसके लिए फिल्म को पूरा नंबर मिलना चाहिए। संभवतः यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका क्लाइमेक्स वर्तमान न होकर तीस साल पीछे का इतिहास है। निर्देशन के लिहाज से यह कार्य जितना कठिन है फिल्म में यह प्रयोग उतना ही सफल मालूम होता है।

यह सभी मेरे निजी विचार हैं। कृपया इसे समीक्षा न समझें।🙏 क्योंकि कुछ नया और चुनौतीपूर्ण करना जितना कठिन कार्य है, उस कृति पर उंगली उठाना उतना ही आसान। भारतीय सिनेमा की अगणित फिल्मों में ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक मामले में ऐतिहासिक है कि आज तक किसी अन्य निर्देशक में इतना चुनौतीपूर्ण विषय उठाने की ताकत नहीं थी।

लेखक वरिष्ठ चिंतक और पत्रकार हैं।

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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