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उत्तराखण्ड

गढ़वाल राइफल के जवान शिब सिंह तो नहीं, मगर 105 साल बाद पहुंची उनकी आवाज

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देहरादून। 1914 से 1918 तक हुए प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश इंडिया के सैनिकों ने भी लड़ाई लड़ी थी. इस युद्ध में गढ़वाल राइफल के जवान शिब सिंह कैंतुरा भी लड़े थे. बाद में वे युद्ध बंदी बना लिए गए थे. फिर बंदी शिविर में रहे और वहां से निकलने के बाद बीमारी के कारण उनका लंदन में ही निधन हो गया. दुर्भाग्य से उस भारतीय जवान की तो वतन वापसी नहीं हो पाई, लेकिन 105 वर्षों के बाद उनकी ‘आवाज’ भारत पहुंची है. बर्लिन की हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी के साउंड आर्काइव की ओर से भारतीय पत्रकार राजू गुसाईं को दिवंगत जवान शिब सिंह कैतुरा की दुर्लभ रिकॉर्डिंग और दस्तावेज उपलब्ध कराए गए हैं।
दरअसल, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के हाफ मून कैंप में युद्ध बंदियों को रखा गया था. शिब सिंह कैंतुरा भी यहीं रखे गए थे. उनके साथ वहां हजारों सैनिक थे. इस कैंप में कैंतुरा और सात हजार अन्य सैनिकों की आवाज के नमूने रिकॉर्ड किए गए थे. शिब सिंह तो वतन नहीं लौट पाए पर संयोग से उनकी आवाज भारत पहुंची है।

शिब सिंह कैंतुरा ब्रिटिश शासन के दौरान आर्मी में कार्यरत ​थे. वे गढ़वाल राइफल में सेवारत थे और राइफलमैन थे. 1914 में प्रथ​म विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उन्हें भी मोर्चे पर भेजा गया था. बाद में उन्हें युद्ध बंदी बना लिया गया था. प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में उत्तराखंड के सैकड़ों जांबाज सैनिक लड़ाई लड़े और शहीद भी हुए. बहुत सारे जवान वापस वतन नहीं लौट पाए. कैंतुरा भी ऐसे जवानों में से एक थे.

Firstpost की रिपोर्ट के अनुसार, प्रथम विश्व युद्ध में मोर्चे पर भेजे गए शिब सिंह पहली/39वीं गढ़वाल राइफल्स में से थे और उनका रेजिमेंटल नंबर-2396 था. शिब सिंह की जो ऑडियो रिकार्डिंग भारत को मिली है, उसमें उनके पैतृक गांव का जिक्र नहीं है, लेकिन दस्तावेजों में उनके गांव का नाम दर्ज है. दस्तावेज में दर्ज जानकारी के मुताबिक, शिब सिंह उत्तराखंड के लुथियाग गांव के रहनेवाले थे. उनका जन्म जखोली रुद्रप्रयाग के लुथियाग गांव में हुआ था, जो जखोली से 20 किलोमीटर की दूरी पर है. तब यह गांव टिहरी रियासत का हिस्सा हुआ करता थाह
शिब सिंह लुथियाग गांव के थे, इसकी पुष्टि तो हो गई, लेकिपन उनके परिजनों के बारे में गांव वालों को भी जानकारी नहीं है. दस्तावेजों के मुताबिक, शिब सिंह जब युद्ध बंदी शिविर से रिहा हुए तो वे फुफ्फुस और ब्रोन्कोपमोनिया बीमारी से ग्रसित थे. शिविर में खराब भोजन, गंदगी, चिकित्सा सुविधा की कमी के कारण वह बीमार हो चुके थे. जर्मन कैद से ​रिहाई के बाद 15 फरवरी 1919 को लंदन में उनका निधन हो गया.

शिब सिंह का जो ऑडियो मिला है, उसमें वे अपने गांव-परिवार की स्थिति और अपने बचपन की यादों को साझा कर रहे हैं. ऑडियो में वह बताते हैं कि रुद्रप्रयाग से 42 किमी दूर अपने स्कूली दिनों में कैसे उन्होंने अपने क्लास के एक लड़के को थप्पड़ मार दिया था. उस स्कूल के प्रिंसिपल उसके पिता के दोस्त थे, इसलिए वे गांव के पास एक जंगल की ओर भाग गए थे. वे 3​ दिनों तक जंगल में ही छिपे रहे।
जर्मन युद्ध बंदी शिविरों में रॉयल प्रशिया फोनोग्राफिक आयोग ने विदेशी भाषाई सर्वेक्षण के विस्तार के लिए विदेशी सैनिकों के भाषण, संगीत वगैरह को रिकॉर्ड किया था. इन युद्धबंदियों में हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली, पंजाबी, नेपाली, तेलुगु, तमिल समेत कई भाषाओं के सैनिकों की रिकॉर्डिंग की गई थी. शिब सिंह की आवाज 2 जनवरी 1917 को रिकॉर्ड की गई थी।

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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