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यूक्रेन जैसे किसी स्वतंत्र देश को अपनी कठपुतली बनाने के रूस के काम का भारत सैद्धांतिक रूप से समर्थन नहीं कर सकता

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रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने वही किया, जिसकी आशंका थी। उन्होंने यूक्रेन पर हवाई हमले शुरू कर दिए और रूसी सेनाएं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण, तीनों दिशाओं से यूक्रेन में दाखिल हो गईं। अमेरिका और नाटो देशों के आर्थिक प्रतिबंधों से तमतमाए पुतिन ने यूक्रेन की सेना को हथियार डालने की सलाह दे डाली है। अमेरिका को संभवत: इसकी आशंका तो थी कि यूक्रेन के पूर्वी डानबास क्षेत्र के डोनेस्क और लुहांस्क प्रांतों पर कब्जा कर वहां रूस की कठपुतली सरकारें बनाने की कोशिश की जाएगी, पर चारों ओर से हमला करके यूक्रेन के विसैन्यीकरण की चाल की आशंका शायद किसी को नहीं थी।

रूस यूक्रेन के हवाईअड्डों और बंदरगाहों को इसलिए निशाना बना रहा, ताकि उसकी मदद के लिए बाहर से रसद न आ सके। राजधानी कीव और हथियाए गए पूर्वी डानबास प्रांत के बीच का संपर्क तोडऩे की कोशिश भी हो रही है। बेलारूस की राजधानी मिंस्क में 2014-15 में हुए जिस युद्धविराम समझौते का पालन करने का पुतिन बार-बार जिक्र करते रहे, उसे उन्होंने खुद ही तोड़ दिया। अब वह यूक्रेन की कमर तोड़कर वहां बेलारूस जैसी कठपुतली सरकार बनाना चाहते हैं। पुतिन का कहना है कि यूक्रेन को लेनिन ने बनाया था और वह हमेशा से रूस का हिस्सा रहा है, जबकि इतिहास बताता है कि यूक्रेन रूस की अपेक्षा बहुत पुराना देश है। 11वीं सदी में यूक्रेन को कीव रूस के नाम से जाना जाता था। जारशाही के समय और सोवियत संघ के 70 सालों को छोड़ यूक्रेन या तो स्वतंत्र रहा या दूसरे साम्राज्यों  का हिस्सा।

यूक्रेन के मामले में पुतिन की मंशा शुरू से ही खतरनाक रही है। पूर्व में डानबास, दक्षिण में क्रीमिया के अलावा दक्षिण पश्चिमी पड़ोसी देश माल्दोवा की यूक्रेन की सीमा से लगने वाली पतली सी पट्टी ट्रांसनिस्ट्रिया पर भी 1992 से रूस समर्थक अलगाववादियों का कब्जा चला आ रहा है। रूसी सेना की एक टुकड़ी वहां तैनात है। संयुक्त राष्ट्र के कई प्रस्तावों के बावजूद पुतिन ने वहां से सेना नहीं हटाई। इस तरह रूस ने यूक्रेन को अब चारों दिशाओं से घेर रखा है। इसलिए नाटो के सुरक्षा कवच के बिना यूक्रेन का स्वतंत्र और स्थिर रह पाना अब कठिन लगता है।

यूक्रेन में 15 परमाणु संयंत्र हैं। सबसे बड़ा जैफरीजिया प्रांत में है, जिसकी सीमा पूर्वी डोनेस्क प्रांत से लगती है। यदि यह परमाणु संयंत्र बमबारी की चपेट में आया तो चेर्नोबिल जैसी दुर्घटना भी हो सकती है, जो समूचे पूर्वी यूरोप के लिए एक भीषण त्रासदी साबित होगी। नाटो देश अभी केवल रूस पर आर्थिक प्रतिबंध और कड़े करने की बातें ही कर रहे हैं, पर रूसी सेनाएं यूक्रेन के सैनिक और राजनीतिक संस्थानों को खत्म करने के लिए आगे बढ़ रही हैं। अब यूक्रेन को नाटो की सदस्यता देना रूस के साथ सीधी टक्कर लेना होगा, जिसके लिए न तो अमेरिका तैयार लग रहा और न बाकी नाटो देश।

क्या नाटो देश उसी तरह जंग में कूदेंगे, जैसे 1999 में कोसोवो की मदद के लिए सर्बिया के विरुद्ध कूदे थे? नाटो के मैदान में उतरे बिना मात्र आर्थिक प्रतिबंधों से रूसी सेना रुकती नहीं दिखती। क्या केवल आर्थिक प्रतिबंधों की मार पुतिन को रोकने के लिए काफी होगी? रूस का शेयर बाजार बुरी तरह गिरा है और रूबल की कीमत न्यूनतम बिंदु पर पहुंच गई है। इससे महंगाई बढ़ेगी और हो सकता है कि रूस के कुछ बैंक दिवालिया हो जाएं। अमेरिका और यूरोप ने अपने वित्त और कर्ज बाजारों को रूस के लिए बंद करने के कदम उठाए हैं। जर्मनी ने रूस की नई गैस पाइपलाइन को चालू करने की अनुमति न देने का एलान किया है, पर रूस के तेल और गैस निर्यात पर पाबंदी की बात नहीं की जा रही है। रूस तीसरा सबसे बड़ा तेल और दूसरा सबसे बड़ा गैस निर्यातक है। यूरोप की 40 प्रतिशत गैस रूस से आती है। जर्मनी, इटली और स्वयं यूक्रेन गैस के लिए रूस पर निर्भर है। बिना प्रतिबंधों के ही तेल की कीमतें सौ डालर पार कर चुकी हैं और गैस के दाम तिगुने हो चुके हैं। तेल और गैस निर्यात पर प्रतिबंध लगाए बिना पुतिन को चोट नहीं पहुंचाई जा सकती, लेकिन प्रतिबंध लगाने से पहली चोट अमेरिका और यूरोप को लगेगी। यूरोप के देश अब रूस पर अपनी ऊर्जा निर्भरता कम करने के बारे में गंभीरता से सोचने लगे हैं। भारत को भी यूक्रेन जैसे संकट से सुरक्षित रहने के लिए एक तो रक्षा क्षेत्र में रूस पर निर्भरता कम करनी चाहिए और दूसरे, ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के बारे में युद्ध स्तर पर काम करना चाहिए।

रूस के हमले ने भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती कूटनीति के क्षेत्र में खड़ी की है। रूस ने कूटनीतिक संकटों की घड़ी में भारत का साथ दिया है। भारत की आधे से अधिक रक्षा सामग्री भी रूस से ही आती है। दूसरी तरफ अमेरिका भारत की सामरिक रणनीति का मुख्य स्तंभ बन चुका है। यूरोप और अमेरिका भारत के सबसे बड़े व्यापार साझीदार हैं। लोकतंत्र और मानवीय मूल्यों के मामले में भी रूस की अपेक्षा यूरोप-अमेरिका भारत के अधिक निकट हैं, पर अब रूस और अमेरिका-यूरोप आमने-सामने हैं और दोनों भारत से समर्थन की उम्मीद रखते हैं।

2014 में क्रीमिया को हड़पने के मामले में भारत ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया था कि क्रीमिया के साथ ‘रूस के वाजिब हित’ जुड़े हैं। अमेरिका-यूरोप ने भारत की इस टिप्पणी को पचा लिया और पुतिन ने इसे अपना समर्थन मानकर भारत का धन्यवाद किया, लेकिन यूक्रेन जैसे किसी स्वतंत्र देश के राजनीतिक-सैनिक तंत्र को ध्वस्त कर अपनी कठपुतली बनाने के काम का भारत सैद्धांतिक रूप से समर्थन नहीं कर सकता। यूक्रेन संकट रूस को आर्थिक और कूटनीतिक समर्थन के लिए चीन की तरफ झुकाता जा रहा है, जो भारत के लिए अच्छी खबर नहीं। क्रीमिया संकट के समय रूस का समर्थन न करने वाला चीन अब उसका खुला समर्थन कर रहा है।

रूस के चीन के खेमे में जाने की चिंता अमेरिका को भी है। यूक्रेन संकट का फायदा उठाकर चीन ताइवान पर हमला करने या फिर भारत की सीमा में घुसपैठ का प्रयास कर सकता है। यह भी संभव है कि शी चिनफिंग अमेरिका, नाटो और रूस के बीच सुलह कराने के लिए पंच बन बैठें और क्वाड के जरिये चीन पर लगाम कसने के भारत के मंसूबे अधूरे ही रह जाएं।साभार न्यू मीडिया

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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