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कांग्रेस का चक्रव्यूह और आत्ममुग्ध भाजपा
अनिल धर्मदेश
कर्नाटक चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि भावनात्मक ज्वार को भड़काने भर से स्थानीय मुद्दे समाप्त नहीं हो जाते। भ्रष्टाचार के प्रति कठोरता, राजनीतिक शुचिता और जनसेवा की भावना ही लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति का एकमात्र मंत्र है। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने जिस सूझबूझ और कूटनीति का प्रयोग किया, भाजपा के रणनीतिकार उसकी काट ढूंढना तो दूर, उसे समझने में भी पूरी तरह विफल रहे। पिछले आठ-नौ साल से भाजपा के समक्ष लगातार पराजय झेल रही कांग्रेस की नई रणनीति सचमुच कारगर है और यदि यही आगे भी जारी रही तो निःसंदेह भावी चुनावों में भी भाजपा चारो खाने चित हो सकती है। 2023 के अंत में होने वाले राजस्थान चुनाव में कांग्रेस अपने अचूक अस्त्र की आखिरी परीक्षा भी अवश्य करेगी। और 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के तरकश का अकाट्य तीर रहा ब्रांड मोदी, 2024 में खुद भाजपा के लिए आत्मघाती अतिआत्मविश्वास का कारण भी बन सकता है।दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्द या गाली को अभी तक चुनावों में जीत की गारंटी समझने वाली भाजपा को अब इसके आगे विचारने की आवश्यकता है। कागजों पर विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा की जमीनी सच्चाई को यदि पार्टी के चुनावी पंडितों ने समय रहते नहीं भाँपा तो राज्यों से केंद्र तक कांग्रेस पार्टी का पुनरुत्थान निश्चित है। प्रत्येक चुनाव में ब्रांड मोदी के इस्तेमाल को अब सामान्य नागरिक किसी न किसी स्तर पर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग के रूप में देखने लगा है।
देखा गया है कि सालोंसाल जनसरोकार से विरत भाजपा के नेता और कार्यकर्ता चुनाव आते ही मोदी के नाम की माला जपने लगते हैं और जनता बार-बार इसका आदर भी करती आयी है। परंतु चुनावों के बाद लोगों की अनेकानेक स्थानीय समस्याओं का निराकरण नहीं होने के कारण एक मौन रोष भी लोगों के मन में बैठने लगा है। राज्यों में भाजपा के कार्यकर्ता यह समझ ही नहीं पा रहे कि ब्रांड मोदी बहुत बड़ा तो है मगर मोदी शिमला, रायपुर, भोपाल, जयपुर या बंगलुरू में बैठकर प्रदेश का संचालन नहीं करते और यह तथ्य जनता को बखूबी मालूम है। राज्यों के भीतर जनता की समस्याएं और भ्रष्टाचार पर ढुलमुल रवैये को कोई स्वीकार नहीं करने वाला, जैसा कि कर्नाटक और हिमांचल चुनावों में दिखाई पड़ा।वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस ने पार्टी के भीतर ही प्रतिद्वंद्विता का जो नया प्रयोग किया है, वह युक्ति धरातल पर सफल सिद्ध होती दिख रही है। पूरी भाजपा आज राहुल गांधी पर हर प्रकार के हमले कर-करके खुश है, जबकि कांग्रेस ने राज्यों में अपने ही दो बड़े नेताओं के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का नया फार्मूला ढूंढ निकाला है। कर्नाटक में ऊपर से नीचे तक पूरी भाजपा राहुल-प्रियंका और धार्मिक उन्माद में फंसी रही, जबकि कांग्रेस में डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच कथित मनमुटाव और बयानबाजी की खबरों ने भाजपाइयों को और आत्ममुग्ध कर दिया कि पार्टी भीतर से भटकी हुई है और भितरघात अवश्य होगा। जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट थी। सिद्धारमैया या डीके शिवकुमार की मीडिया में दिखने वाली लड़ाई के बावजूद दोनों नेता पार्टी हाईकमान के प्रति सदैव जवाबदेह बने रहे। परिणामस्वरूप कर्नाटक में कांग्रेस का पूरा संगठन और बड़े नेता दो अलग-अलग गुट में बंटकर गठबंधन की तर्ज पर अपने-अपने खेमे को मजबूत करने के लिए पूरी शक्ति से जुट गए। इसका एक लाभ यह भी हुआ कि कांग्रेस के एक वर्ग से रुष्ट समाज उसी पार्टी के दूसरे वर्ग से बड़ी आसानी से जुड़ता चला गया। दोनों खेमे के नेता और कार्यकर्ता जनता के बीच बड़ी सहजता से यह विश्वास जगाने में निश्चित रूप से सफल हुए कि भावी सरकार में उनका गुट ही मजबूत स्थिति में रहेगा और सरकार में उनकी ही सुनी जाएगी। इस प्रकार कार्यकर्ताओं के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा से पार्टी के भीतर एक नए जोश का संचार भी हो गया। उधर भाजपा यदुरप्पा गुट के दबाव में लिंगायत वोटों को साधने का यत्न करती रही, जिससे वोक्कालिगा वोटबैंक उसके हाथ से जाता रहा क्योंकि दोनों के बीच का गतिरोध समाप्त नहीं किया जा सका। जबकि सिद्धारमैया राज्य के कुरुबा वोटों का ध्रुवीकरण करने में सफल हो गए और डीके शिवकुमार ने वोक्कालिगा वोटबैंक में गहरी सेंध लगा दी।कांग्रेस पार्टी ने यह प्रयोग सिर्फ कर्नाटक में ही नहीं किया है। इससे पहले ठीक ऐसा ही प्रयोग हिमांचल प्रदेश में भी दिखा, जहां सुखविंदर सिंह सूक्खू और प्रतिभा सिंह के बीच जबरदस्त प्रतिद्वंद्व के बीच विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को पराजित किया। वहां भी सीएम पद के लिए भारी खींचतान की अटकलों के बावजूद दोनों वरिष्ठ नेता पार्टी से बागी नहीं हुए और अंत तक शीर्ष नेतृत्व के निर्देशों के अनुरूप पार्टी को चुनावों में जिताने के लिए संगठन के साथ जुटे रहे। वहाँ भी भाजपा के स्थानीय नेता और पार्टी संगठन कांग्रेस पार्टी में भितरघात की बाट ही जोहता रह गया। कांग्रेस पार्टी ने ठीक यही रणनीति राजस्थान में भी बनाई है, जहां सचिन पायलट बागी के रूप में अपनी ही सरकार के प्रति जनता में उभरने वाले रोष को मंच दे रहे हैं। वहां भी कांग्रेस सत्ता और विपक्ष दोनों की भूमिका साथ-साथ निभाकर अपनी ही पार्टी के दो खेमों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन वाली स्थिति में है। सचिन पायलट जाटलैंड और गुर्जरों को साधने में लगातार सफल होते दिख रहे हैं। वहीं कांग्रेस के परंपरागत वोटों को साधने में माहिर अशोक गहलोत की पिछड़े वर्ग में भी अच्छी पैठ है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला की बेटी सारा से विवाह के बाद सचिन पायलट कांग्रेस के परंपरागत मुस्लिम वोटरों की भी विशेष पसंद हैं। जबकि भाजपा का स्थानीय संगठन कांग्रेस में भीतरघात और मोदी मैजिक की आस में वह परिश्रम नहीं कर रहा, जिसकी एक विपक्षी पार्टी से जनता को अपेक्षा होती है। कांग्रेस में भीतरघात की राजस्थान भाजपा को आस का ही परिणाम है कि प्रदेश भाजपा इकाई सचिन पायलट पर उतना हमलावर नहीं है, जितना होना चाहिए और इसी कारण जानता में यह संदेश स्वतः चला जाता है कि सचिन एक बेदाग नेता हैं।बेंगलुरु में मोदी की सभाओं और रोडशो में जुटने वाली भीड़ निश्चित रूप से ब्रांड मोदी के ही कारण आयी होगी। मगर एक वोटर जब समग्र में उम्मीदवारों के बीच तुलना करता है तो उसे स्थानीय मुद्दों और समस्याओं के निराकरण के लिए वह नेता ही भाएगा, जिसका सीधा जुड़ाव जनता से होगा। जिसपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं होंगे और जिसकी कार्यशैली जाती-पंथ के भेद से बहुत ऊपर होगी। लिंगायत और आदिवासी को अलग से साधने की आवश्यकता तभी पड़ी, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता कर्नाटक की जनता के बीच अपना व्यापक सम्मान गंवा बैठे। ब्रांड मोदी के अति आत्मविश्वास में पार्टी के नेताओं का जनता के समक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ व्यवहार और निचले कार्यकर्ताओं की अनदेखी भविष्य में भाजपा के लिए नई चुनौतियां खड़ी करने वाला है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने शेष राज्यों से अलग चलकर अपने स्तर पर विकास कार्यों को जिस प्रकार प्राथमिकता दी है, उसी के परिणामस्वरूप निकाय चुनाव में भाजपा को बड़ी जीत भी हासिल हुई। जन आकांक्षाओं और सामाजिक समस्याओं का उन्मूलन करने के साथ कसी हुई मशीनरी और अपराध-भ्रष्टाचार पर कठोर कार्यवाही की शैली ने यूपी सीएम को लोकप्रियता का वह स्थान प्रदान किया है, जहां ब्रांड मोदी के बिना भी जनता का समर्थन प्राप्त होता दिख रहा है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान भाजपा का संगठन और नेता यदि इस मौलिक तथ्य और चक्रव्यूह को नहीं समझ सके तो आगामी चुनावों में भी कर्नाटक और हिमांचल प्रदेश के नतीजों की पुनरावृत्ति निश्चित है
