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साहित्य-काव्य

उमेश तिवारी विश्वास का व्यंग्य ‘उत्सवजीवी’

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उत्सवजीवी
अगर आप देख सकते तो न्यू इंडिया के चेहरे पर इन दिनों आपको एक अनोखी चमक दिखाई पड़ती। ये उत्सवी चमक-दमक है। देश में चारों ओर उत्सवों की बहार जो है। एक निपटा तो दूसरा आ जाता है। चमक कम हुई तो दमक छा जाती है। नगर-नगर, मुहल्ले-मुहल्ले उत्सवों की धूम है।

अपनी कॉलोनी में दो नए स्पीड ब्रेकर बने हैं। एक दिवसीय ‘ब्रेकर उत्सव’ में इनका लोकार्पण किया जाना है। इस उपलक्ष्य में भाषणों के अलावा सूक्ष्म सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया है। दोनों सी सी निर्मित स्पीड ब्रेकरों के मध्य की उधड़े कोलतार वाली सड़क पर टेंट हाउस की रंगीन कार्पेट बिछी है। बिजली के लपलपाते तार चाँदनी से ढक गए हैं। ‘ब्रेकर उत्सव’ के लिए सजे इस अस्थाई कॉरीडोर में गली के कुत्ते सुबह से ही पैर पसार कर निद्रामग्न हैं। ट्रैफिक का डर नहीं रहा तो अभिभावकों ने भी बच्चों को खुला छोड़ दिया है। सड़क अवरुद्ध होने से लोग अगल-बगल की गलियों से अपने वाहन निकालने को मजबूर हैं। डाइवर्जन पकड़ते वाहन चालक अपने श्रीमुख से मोटी-मोटी गालियां और वाहनों से अतिरिक्त धुवाँ छोड़ रहे हैं। बच्चों की शब्दावली में नये अलंकारों का डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर हो रहा है। धुंवे और मां-भैंन की जुगलबंदी इन बच्चों को मज़बूत दिल-औ-दिमाग़ का नागरिक बनाएगी। आख़िर भविष्य में उन्हीं को उत्सवों का दायित्व सम्हालना है। फ़िलहाल शाम को ‘ब्रेकर उत्सव’ में यही उल्लसित बच्चे मुख्य अतिथि के स्वागत में कोरस प्रस्तुत करेंगे। सुंदर प्रस्तुति के लिए तालीम और आपसी तालमेल बहुत ज़रूरी है, शायद इसलिए वो ब्रेकफास्ट के बाद से ही काफ़ी तालमेल से चिल्ला रहे हैं।

अपनी उत्सवधर्मिता की ठरक तो देखिए कि हम कोरोना को भी इवेंट बना देते हैं। कोरोना को ख़ुद पता न होगा कि इंडिया पहुँच कर वो उत्सवों का बाइस बन बैठेगा। चीनी घुसपैठ सा गुपचुप आया कोरोना विस्तार को उतावला था। उत्सवरत इंडिया अमरीकी राष्ट्रपति के स्वागत में बावला था। गुजरात के स्टेडियमों से आगरा के ताज महल तक ता-ता-थैया करता कोरोना इंडिया के गले आ पड़ा। उसे पटाने की कोशिश भी हमने उत्सवी अंदाज़ में ताली-थाली बजा कर की, धूप-दिया-बत्ती भी करी मगर उसने ज़रा भी ‘करुणा’ न दिखाई। जब उसने सुरसा सा विकराल रूप दिखाया तब वैक्सीन की समझ आई… और इंडिया ने विश्व रिकॉर्ड बना कर ‘वैक्सीनेशन उत्सव’ मनाने का मौक़ा हासिल कर लिया। न्यू इंडिया को उत्सव से मतलब; अवसर सुई लगाने का हो या वोट डलवाने का।

इधर देश अपने लिए झटपट उत्सव तैयार किये ले रहा है। हफ़्ते के शुरुवाती दिनों उत्सवच्युत रहा नहीं कि वीकेंड आते-आते उत्सवरत होने को बेक़रार हो जावे है। इस ट्रेंड को दूर से ताड़ते हुए सरकार उत्सवों को बढ़ावा दे रही है। उसने विभिन्न क्षेत्रों में संभावित उत्सवों का एक कैलेंडर बनवा लिया है। उसका मानना है उत्सवों के आयोजन से रोज़गार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं। सरकारी स्वरोज़गार में लगे युवाओं को ध्याड़ी से एक्सट्रा इनकम हो रही हैगी। टोपी, गमछा आदि की छोंक अलग से।

‘लोकतंत्र का उत्सव’ नजदीक होने से उत्सवों का महोत्सव में बदल जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसका आनंद ही कुछ और हैगा। झटके में बजट दूना-तिगुना हो जावे। फण्ड की प्रचुरता से युवा हृदयों के पसंदीदा सांध्यकालीन सांस्कृतिक प्रोग्राम, पत्रकारों की कलम-दवात, ठेकेदारों के एडवांस, लाभार्थियों का यात्रा भत्ता, पंडितों की दक्षिणा और पुराने उधार आदि के बिल चुकता करने में सहूलियत हो जाती है। कल ही आज़ादी के लोकल अमृत महोत्सव प्रभारी साहब का फ़ोन आया-
‌’अरे कहाँ अदृश्य हैं श्रीमन..आज़ादी के अमृत महोत्सव में भी दिखाई नहीं पड़े ? हम सोच रहे थे प्रसाद गृहण करने तो आएंगे..’

‌’यहीं हैं सर, कोरोना का ज़हर झेल रहे हैं। घर में क़ैद हैं। महोत्सव की रिपोर्ट घर से ही बनवा देते हैं। आपके लौंडों के भी नाम रेगुलर छप रहे हैं। आपकी निगाह नहीं पड़ी होगी शायद … ऐसे ही थोड़ी आपके मीडिया के प्रतिनिधि ना हैं सरजी ही..ही ! संभव हो तो हमारे हिस्से के अमृत की शीशी घर भिजवा दें..ही ही ही।’

‌’अमृत का तो छींटा भी नहीं बचा श्रीमन। हाँ, आपके लिए सैनिटाइजर की बोतल अवश्य भिजवा सकते हैं..ही ही ही।’

‌’थैंक्यू सर, थैंक्यू..आपके सौजन्य से मिला विष भी आशीर्वाद है।’

‌’अरे हाँ, दस को ‘ओमिक्रोन मुक्ति उत्सव’ का शुभारंभ हो रहा है। तब तक चंगे हो जाएं तो उदघाटन में अवश्य पधारें, भाईजी भी आ रहे हैं। वैसे आपको हुआ कौन सा है..?’

‌’अभी डेल्टा से उबरा हूँ सर। एक टी वी एंकर का प्लाज़्मा चढ़ा है। काम करने की तीव्र इच्छा होती है आजकल। …आता हूँ सर, आता हूँ।’
(उमेश तिवारी विश्वास)

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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