उत्तराखण्ड
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन का असर, वनों में समय से पहले खिल रहे बुरांस, काफल, हिंसालू
जलवायु परिवर्तन का असर उत्तराखंड के जंगलों में दिखने लगा है। वन विभाग की अनुसंधान विंग द्वारा कुमाऊं मंडल के मुनस्यारी क्षेत्र में किया गया अध्ययन इसकी पुष्टि करता है। यहां के वनों में बुरांस (रोडोडेंड्रान आरबेरियम), काफल (माइरिका एसकुलेंटा), हिंसालू (रूबस इलिप्टिकस) व भेंकल (प्रिंसीपिया यूटिल्स) प्रजातियों में निर्धारित समय से दो-तीन माह पहले ही फूल खिल रहे हैं। यह भी संभावना जताई गई है कि इससे परागण की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। मुख्य वन संरक्षक अनुसंधान वृत्त संजीव चतुर्वेदी के अनुसार अब यह अध्ययन भी कराया जाएगा कि समय से पहले खिलने से फलों की गुणवत्ता में कोई अंतर तो नहीं आया है।
प्रदेश में पिछले कुछ वर्षों से ये बात सामने आ रही है कि अलग-अलग क्षेत्रों में राज्य वृक्ष बुरांस के फूल समय से पहले खिल रहे हैं। कुछ अन्य प्रजातियों में भी ऐसा देखा गया। इसे देखते हुए वन विभाग की अनुसंधान विंग ने मुनस्यारी क्षेत्र के जंगलों में अध्ययन कराने का निर्णय लिया। गत वर्ष किए गए इस अध्ययन की रिपोर्ट हाल में जारी की गई। मुख्य वन संरक्षक अनुसंधान वृत्त संजीव चतुर्वेदी के अनुसार अध्ययन के दौरान चार प्रजातियों पर मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नजर आया।
उन्होंने बताया कि बुरांस के फूल सामान्य तौर पर मार्च से मई तक खिलते हैं, लेकिन मुनस्यारी क्षेत्र में पिछले वर्ष ये जनवरी से खिलना शुरू हो गए। इसी तरह काफल में फरवरी से ही फल लगने शुरू हो गए, जबकि इसमें अप्रैल आखिर से जून तक फल लगते हैं। हिंसालू, जिसे हिमालयी क्षेत्र की रसबेरी भी कहा जाता है, उस पर भी फरवरी मध्य में ही फूल आना शुरू हुए और मार्च से फल। सामान्य परिस्थितियों में हिंसालू मार्च में खिलना शुरू होता है और मार्च आखिर से अपै्रल तक इसमें फलत होती है। हिंसालू की तरह भेंकल में फरवरी में फूल आने लगे, जबकि अमूमन मार्च आखिर से यह प्रक्रिया शुरू होती है।
आइएफएस चतुर्वेदी ने कहा कि मौसम में आया बदलाव इन प्रजातियों के पुष्पण और फलत चक्र में परिवर्तन का कारण बना है। कहा कि पेड़-पौधों में फूल खिलने व फल लगने का निर्धारित चक्र है। समय से पहले यह प्रक्रिया होने से परागण प्रक्रिया बाधित हो सकती है। इन चारों प्रजातियों के दृष्टिगत बात करें तो परागण में सहायक कीट-पतंगे आदि सामान्य रूप से मार्च में आते हैं। समय से पहले फूल खिलने से इनका चक्र गड़बड़ाएगा और इसका असर अन्य पेड़-पौधों पर पड़ सकता है।
उन्होंने बताया कि अब इन प्रजातियों के फलों का बायोकैमिकल विश्लेषण कराया जाएगा। इससे पता चलेगा कि समय से पहले फल आने से इनकी गुणवत्ता पर तो कोई असर नहीं पड़ा है। इस सिलसिले में जल्द किसी एजेंसी से संपर्क कर कार्रवाई शुरू की जाएगी।
हिमालयन पीका पर मंडराया खतरा
आइएफएस चतुर्वेदी ने बताया कि अनुसंधान विंग ने उच्च हिमालयी क्षेत्र में केदारनाथ, फूलों की घाटी, चोपता, तुंगनाथ की भी पड़ताल की। इसमें पता चला कि इन क्षेत्रों में शाकीय प्रजातियां घटी हैं। इससे इन वानस्पतिक प्रजातियों पर निर्भर रहने वाले हिमालयन पीका (चूहे से बड़ा और गिलहरी से छोटा जीव) पर असर पड़ा है। उन्होंने कहा कि यदि उच्च हिमालयी क्षेत्र में शाकीय प्रजातियां इसी तरह घटती रहीं तो अगले 30-40 वर्षों में पीका के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा होने से इनकार नहीं किया जा सकता।