राजनीति
मैं उत्तराखंड का मुख्यमंत्री… वाया दिल्ली…विद बवंडर
मनोज लोहनी, हल्द्वानी
उत्तराखंड के अब तक के सभी मुख्यमंत्रियों और बवंडर का सीधा संबंध रहा है। सीएम की कुर्सी और बवंडर का हालांकि कोई तालमेल नहीं है, मगर उत्तराखंडी इस बात को समझते हैं कि इस बात के मायने क्या हैं। सीएम बनने की जो संवैधानिक प्रक्रिया है, उससे तो यहां अब तक कोई सीएम नहीं बना, यह देखा गया। अभी फिर देखा जाना है १० मार्च को। मगर पिछले २२ सालों में तो यही हुआ। बवंडर ऐसे हुए कि बवंडर शब्द भी हल्का पड़ता मालूम होने लगा। राज्य बना, सीएम बने, बदले, दल टूटे और सीएम बनने के लिए होटलों के शीशे टूटे तो गमले भी टूट गए, एक घोड़े का पैर भी टूटा। यानी छोटे से छोटी और बड़े से बड़ी टूटन के बाद ही राज्य को हर बार एक मुख्यमंत्री मिला। वह मुख्यमंत्री जिसे राज्य चलाना होता है, लोगों के भले के बारे में सोचना होता है। मगर यह उत्तराखंड के लिए त्रासद ही रहा कि ‘कुर्सी कैसे बचेÓ, इस कवायद में ही ज्यादातर मुख्यमंत्रियों का समय बीत गया, लोगों के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिला उन्हें। बहरहाल बात, मुख्यमंत्री, वाया दिल्ली और बवंडर की।
राज्य बना, राज्य को नित्यानंद स्वामी नाम के मुख्यमंत्री मिले। तब शांति थी, दिल्ली से सीएम भेजा गया। मगर फिर हलचल शुरू, १६ महीन हुए थे, सीएम मिले भगत सिंह कोश्यारी, ८ महीन के लिए। फिर बारी आई पहले विधानसभा चुनाव की, चुनाव हुए और कांग्रेस बहुमत में आ गई। बवंडर शुरू…हरीश रावत सामने थे, और भी तमाम दावेदार…मगर देहरादून वाया दिल्ली कहानी फिर सामने आई और नए जन्मे राज्य को सीएम मिले नारायण दत्त तिवारी। हरीश रावत आक्रोशित तो थे, यदा-कदा ऐसा दिखा भी…एनडी तिवारी को मालूम था…हर बार अंदरूनी तौर पर कुछ घटित होता और फिर डैमेज कंट्रोल। ऐसा डैमेज कंट्रोल कि तिवारी जी के राज में नए जन्मे राज्य में इतने राज्यमंत्रियों का जन्म हुआ कि छोटा सा राज्य मंत्रियों से ठसाठस भर गया और हर तरफ हूटरों की आवाजें जनता के कान खाने लगी। खैरे जैसे-तैसे पांच साल कटे, चुनाव हुए और भगत सिंह कोश्यारी के नेतृत्व में चुनाव लडऩे के बाद यहां भाजपा बहुमत मिल गया। अब फिर वाया दिल्ली वाला मामला…। तब लोगों को देहरादून का वह होटल याद होगा जिसमें बैठकें का दौर चला दिन भर नारेबाजी और शाम को फिर बारी गमले टूटने की थी जब बीसी खंडूरी को सीएम बना दिया गया। अब फिर वही खेल होना था, कुर्सी बचाने का। खंडूरी जी का कड़क मिजाज…हर बार बवंडर और फिर इस बवंडर से फिर नए सीए मिले डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक। इस बीच अंदरूनी बवंडर चलता रहा, चला और ऐसा चला कि दिल्ली से फिर फरमान जारी हो गया बीसी खंडूरी को फिर सीएम बनाने का। यानी पांच साल में तीन सीएम…हर बार नए बवंडर के साथ वाया दिल्ली। फिर विधानसभा चुनाव आए और कांग्रेस को बहुमत मिला। हरीश रावत को लगा उनकी मेहनत पर पानी फिर सकता है, ऐसा ही हो गया…बवंडर…वाया दिल्ली…मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा। अब तो असली बवंडर होना था, ऐसा बवंडर कि घोड़े की टांग तक टूट गई। कांग्रेस में बगावत, ९ कांग्रेसी भाजपा में और सरकार अल्पमत में। बहुत बवंडर चला…कोर्ट तक बात पहुंची और राज्य ने देखा कि लगभग तीन महीने के लिए उसे बिना मुख्यमंत्री के भी बने रहना पड़ सकता है। खैर इस दौरान जो हुआ उसे कोई याद भी नहीं रखना चाहेगा…बवंडर शब्द हल्का पड़ गया। फिर विधानसभा चुनावों की बारी आई, भाजपा प्रचंड बहुमत में। त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने। खैर यहां बवंडर थमा, निर्वाचित विधायक को सीएम बनाया गया। लगा कि सब कुछ शांत। मगर इस शांति की कसर एक साथ तब पूरी हो गई जब पहले तीरथ और फिर राज्य को मिले पुष्कर सिंह धामी…वाया दिल्ली…। फिलहाल बवंडर थमा है, १० मार्च को क्या होगा? हमें भी इंतजार है। प्रणाम।

