साहित्य-काव्य
प्राचीन लखनऊ के ज़नाने परिधान
हिजाब और अपनी बात

रघोत्तम शुक्ल
सेवानिवृत्त पीसीएस

इन दिनों मुस्लिम महिलावों द्वारा हिजाब पहनने का विवाद जोरों पर है।कर्नाटक के एक कालेज से शुरू होकर यह काफी विस्तार पा चुका है और कर्नाटक हाईकोर्ट में विचाराधीन रहकर,प्रकरण सुप्रीमकोर्ट में भी दस्तक दे चुका है।उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ, जहाॅ एक ओर सनातन आर्य सभ्यता की पीठ रहा है,वहीं नवाबी काल में और पश्चात् मुस्लिम सभ्यता और संस्कृति का भी केंद्र मान्य है।आइये देखते हैं कि इस पुराने मुस्लिम कालखण्ड में यहाॅ औरतों के लिबास क्या थे और हिजाब,बुर्का वगैरह की क्या स्थिति थी?मालूम हो कि हिजाब एक वस्त्र है,जिससे मुस्लिम स्त्रियाॅ सर और सीना ढकती हैं।
पुराने समय में लखनवी औरतों का लिबास एक बिना सिली लम्बी चादर थी,जिसे वे आधी कमर में बाॅधकर बाकी को कॅधै या सर पर डालकर ओढ़ लेती थीं।इसके साथ वे सीने का एक वस्त्र पहनती थीं,जिसे चोली या अंगिया कहते थे।एक वरिष्ठ मुस्लिम लेखक के अनुसार यह वस्त्र हिन्दोस्तान में श्रीकृष्ण के ज़माने से मौजूद था।यानी यह इस्लामिक न हो कर पुरानी हिंदू सभ्यता का अंगवस्त्र था,जिसे मुसलमान औरतों ने भी खुले दिल से अंगीकार कर लिया।मूलतः मुसलमान औरतें बाहर से जब यहाॅ आईं तो ढीली मोहरी के पायजामें पहनती थीं।बाद में मोहरी तंग करने लगीं;फिर मुसलमान बेगमों ने रूप प्रदर्शन हेतु कसी मोहरी का पैजामा और छोटी,खिंची हुई अंगिया पहनने लगीं;हालाॅकि ऊपर एक अजीबो गरीब कुर्ती पहनतीं,जिससे पेट और पीठ ढका जाता था।सीने पर इसका कोई हिस्सा नहीं रहता था।अलबत्ता तीन गज़ का एक बारीक दुपट्टा सर से ओढ़ा जाता था।बाद में फैशन के चलते केवल उरोजों पर डाला जाने लगा।मौसम का रुख और नज़ाकत के चलते
कुर्ती और दुपट्टे उत्तरोत्तर हलके होते गये। रंगीन मिजाज़ बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के ज़माने में ऐसे पायज़ामे चले जो कमर के पास बहुत तंग होते और मियानी काफी खिंची हुई होती। 1857 के आसपास कुर्ती भी हटा दी गई।कपड़े बारीक़ हुए और आधी बाॅह के सलूके यानी ब्लाउज़ रिवाज़ में आ गये। फैशन के चलते कपड़ों की बारीक़ी इस क़दर हुई कि लगभग पारदर्शी हो गये।आधुनिकता इतनी हाबी हुई कि अंग्रेज़ी जैकेट पहनी जाने लगी।जब बाहरी शहरों और सूबों से सम्पर्क बढ़ा तो मुसलमान औरतों ने सादगी के नाम पर साड़ी पहनना शुरू कर दिया।मुसलमान परम्परावादियों ने इस सादगी को नग्नता माना और रूढ़िवादी लेखक,पत्र,पत्रिकाएं बढ़ती फैशन परस्ती के सामने लाचार हो गये और इस नतीजे पर पहुॅचे कि उनके कलम घिसने का कोई असर होने वाला नहीं है।
तत्समय हिजाब या बुर्के का कोई जिक्र नहीं है।काफी खुलापन था।

