धर्म-संस्कृति
क्या आप चार्वाक व उनके दर्शन से परिचित हैं
क्या आप चार्वाक व उनके दर्शन से परिचित हैं
उमाकांत दीक्षित
मानव जीवन का सबसे प्राचीन दर्शन (philosophy of life) कदाचित् चार्वाक दर्शन है, जिसे लोकायत या लोकायतिक दर्शन भी कहते हैं । लोकायत का शाब्दिक अर्थ है ‘जो मत लोगों के बीच व्याप्त है, जो विचार जनसामान्य में प्रचलित है ।’ इस जीवन-दर्शन का सार निम्नलिखित कथनों में निहित है:
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।
त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः ।
(स्रोत: ज्ञानगंगोत्री, संकलन एवं संपादन: लीलाधर शर्मा पांडेय, ओरियंट पेपर मिल्स, अमलाई, म.प्र., पृष्ठ 138)
मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोग के लिए जो भी उपाय करने पड़ें उन्हें करे । दूसरों से भी उधार लेकर भौतिक सुख-साधन जुटाने में हिचके नहीं । परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी बातों की परवाह न करे । भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भष्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाहसंस्कार में राख हो चुके, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है । जो भी है इस शरीर की सलामती तक ही है और उसके बाद कुछ भी नहीं बचता इस तथ्य को समझकर सुखभोग करे, उधार लेकर ही सही । तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरे निशाचर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने के लिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है ।
चार्वाक सिद्धांत का कोई ग्रंथ नहीं है, किंतु उसका जिक्र अन्य विविध दर्शनों के प्रतिपादन में मनीषियों ने किया है । उपरिलिखित कथन का मूल स्रोत क्या है इसकी जानकारी अभी मुझे नहीं हैं । मुझे यह ‘ज्ञानगंगोत्री’ नामक ग्रंथ में पढ़ने को मिला ।
माना जाता है कि ‘लोकायत’ विचार का कोई प्रणेता नहीं है, लेकिन इसे दर्शन रूप में स्थापित करने का श्रेय आचार्य बृहस्पति को दिया जाता है, जो कदाचित् देवगुरु बृहस्पति से भिन्न थे । चार्वाक को उनका शिष्य बताया जाता है, जिसने इस विशुद्ध भौतिकवादी विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित किया । शायद इसीलिए उसका नाम इस दर्शन से जुड़ गया । यह भी माना जाता है कि चार्वाक नाम भी उसका मौलिक नाम नहीं था । मेरे पास उपलब्ध शब्दकोश में इस नाम की व्याख्या इस प्रकार दी गयी है:
चारुः लोकसम्मतो वाको वाक्यं यस्य (सः चारुवाकः)
(संस्कृत-हिंदी शब्दकोश, वामन शिवराम आप्टे, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, 2006)
अर्थात् लोकलुभावन और आम जन को प्रिय लगने वाले वचन कहता हो, प्रचारित करता हो, वह चारुवाक । कालांतर में यही बदलकर चार्वाक हो गया । जो सीधे तौर में समझ आये और सुविधाजनक लगे जीवन का वैसा रास्ता जो दिखाये वह चार्वाक ।
चार्वाक दर्शन नास्तिकवादी एवं अनीश्वरवादी है । इस दर्शन के अनुसार जो भी इंद्रियगम्य है, जिसके अस्तित्व का ज्ञान देख-सुनकर अथवा अन्य प्रकार से किया जा सकता है, वही वास्तविक है । जिस ज्ञान को चिंतन-मनन से मिलने की बात कही जाती है, वह भ्रामक है, मिथ्या है, महज अनुमान पर टिका है । आत्मा-परमात्मा जैसी कोई चीज होती ही नहीं है, अतः पाप-पुण्य नर्क-स्वर्ग का कोई अर्थ ही नहीं है ।
चार्वाक सिद्धांत चार तत्वों, ‘पृथ्वी’, ‘जल’, ‘अग्नि’, एवं ‘वायु’ को मान्यता देता है । समस्त जीव-निर्जीव तंत्र/पदार्थ इन्हीं के संयोग से बने हैं । स्थूल वस्तुओं/जीवों की रचना में ‘आकाश’ का भी कोई योगदान नहीं रहता है, अतः उसे यह पांचवें तत्व के रूप में नहीं स्वीकारता है । (ध्यान रहे कि कई दर्शन पांच महाभूतों को भौतिक सृष्टि का आधार मानते हैं: ‘क्षितिजलपावकगगनसमीरा’) । चार्वाक के अनुसार मनुष्यों एवं अन्य जीवों की चेतना इन्हीं मौलिक तत्वों के परस्पर मेल से उत्पन्न होती है । जब शरीर अपने अवयवों में बिखर जाता है तो उसके साथ यह चेतना भी लुप्त हो जाती है । इस विचार को स्पष्ट करने के लिए चार्वाक का अधोलिखित कथन विचारणीय है:
जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।
ताम्बूलपूगचूर्णानां योगाद् राग इवोत्थितम् ।।
(स्रोत: भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास, लेखक: हरिदत्त शास्त्री, साहित्य भंडार, मेरठ, 1966, पृष्ठ 63)
अर्थात् जिस प्रकार पान के पत्ते तथा सुपाड़ी के चूर्ण के संयोग से लाल रंग होंठों पर छा जाता है, उसी प्रकार इन चेतनाशून्य घटक तत्वों के परस्पर संयोग से चेतना की उत्पत्ति होती है । यानी चेतना आत्मा या तत्तुल्य किसी अन्य अभौतिक सत्ता की विद्यमानता से नहीं आती है । विभिन्न पदार्थों के सेवन से चेतना की तीव्रता कम-ज्यादा हो जाती है, जिससे स्पष्ट है कि ये ही पदार्थ चेतना के कारण हैं ।
चार्वाक दर्शन वस्तुतः आज का विज्ञानपोषित भौतिकवाद है, जिसकी मान्यता है कि समस्त सृष्टि भौतिक पदार्थ और उससे अनन्य रूप से संबद्ध ऊर्जा का ही कमाल है । पदार्थ से ही जीवधारियों की रचना होती है । उसमें किसी अभौतिक सत्ता की कोई भूमिका नहीं है । विशुद्ध चेतनाहीन पदार्थ से ही जटिल एवं जटिलतर जीवों की रचना हुई है । जीव-रचना की जटिलता के ही साथ चेतना का भी उदय हुआ है । ऐसी संरचना के निरंतर विकास के फलस्वरूप मानव जैसा चेतन और बुद्धियुक्त जीव का जन्म हुआ है । वैज्ञानिकों का एक वर्ग इस विचारधारा का पक्षधर है कि चेतना का मूल कारण भौतिकी के ही प्राकृतिक नियमों में छिपा है । चेतना का उदय कब और कैसे होता है यह अवश्य इन विज्ञानियों के लिए अभी अबूझ पहेली है ।
आधुनिक विज्ञान पदार्थमूलक है । अध्यात्म से उसका कोई संबंध नहीं है । आज के विज्ञानमूलक भौतिक दर्शन, जिसमें सब कुछ पदार्थगत है, को चार्वाक दर्शन का परिष्कृत दर्शन कह सकते हैं, क्योंकि यह भौतिक तंत्रों/घटनाओं की तर्कसम्मत व्याख्या कर सकता है । अवश्य ही यह चार्वाक के चार तत्वों पर नहीं टिका है । सभी वैज्ञानिक चार्वाक सिद्धांत को यथावत् नहीं मानते हैं । उनमें कई ईश्वर तथा जीवात्मा जैसी चीजों को मानते हैं ।
‘लोकायत’ के मतावलंबियों को अक्सर ‘चार्वाक’ भी कहते हैं । चार्वाकों को दो श्रेणियों में बांटा जाता है: (1) धूर्त, एवं (2) सुशिक्षित । ‘यह शरीर जब तक है, तभी तक सब कुछ है, उसके बाद कुछ नहीं रहता’ के सिद्धांत के कारण लोकायत में पाप-पुण्य, नैतिकता आदि जैसी बातों का कोई ठोस आधार न होते हुए भी ‘सुशिक्षित’ चार्वाक सुव्यवस्थित मानव समाज की रचना के पक्षधर होते हैं । दूसरी तरफ ‘धूर्त’ चार्वाकों के लिए ‘खाओ-पिओ मौज करो, और उसके लिए सब कुछ जायज है’ की नीति पर चलते हैं । उनके लिए सुखप्राप्ति एकमेव जीवनोद्येश्य रहता है । कोई भी कर्म उनके लिए गर्हित, त्याज्य या अवांछित नहीं होता है । और ऐसे जनों की इस धरती पर कोई कमी नहीं होती है ।
मेरा अपना आकलन है कि इस दुनिया में 90 प्रतिशत से अधिक लोग चार्वाक सिद्धांत के अनुरूप ही जीवन जीते हैं । यद्यपि वे किसी न किसी आध्यात्मिक मत में आस्था की बात करते हैं, किंतु उनकी धारणा गंभीरता से विचारी हुई नहीं होती, महज सतही होती है, एक प्रकार का ‘तोतारटंत’, एक प्रकार की भेड़चाल में अपनाई गयी नीति । चूंकि दुनिया में लोग ऐसा या वैसा मानते हैं, अतः हम भी मानते हैं वाली बात उन पर लागू होती है । अन्यथा तथ्य यह है कि प्रायः हर व्यक्ति इसी धरती के सुखों को बटोरने में लगा हुआ है । अनाप-शनाप धन-संपदा अर्जित करना, और भौतिक सुखों का आनंद पाना यही लगभग सभी का लक्ष्य रह गया है । मानव समाज में जो भी छोटे-बड़े अपराध देखने को मिलते हैं वे अपने लिए सब कुछ बटोरने की नियत से किये जाते हैं ।हमारे कृत्य से किसी और को क्या कष्ट होगा इसका कोई अर्थ नहीं है । मेरा काम जैसे भी निकले वही तरीका जायज है की नीति सर्वत्र है । इस जीवन से परे भी क्या कुछ है इस प्रश्न को हर कोई टाल देना पसंद करता है । और कर्मकांडों के तौर पर कहीं कुछ होता है तो वह भी अपने, अपने परिवार, अपने लोगों के सुखमय जीवन एवं सुरक्षा की कामना से किया जाता है । यहां तक कि आधुनिक धर्मगुरु भी अपने सुख के लिए चेलों का संगठन तैयार करते हैं; वे अपने परलोक के लिए उतना चिंतित नहीं रहते जितना दूसरों के परलोक के लिए (धोखा देना) । वस्तुतः इस समय सर्वत्र चार्वाक सिद्धांत की ही मान्यता है; आप मानें या न मानें । – योगेन्द्र जोशी

