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उत्तराखण्ड

श्री नंदा देवी महोत्सव: उत्तराखंड की कुलदेवी को समर्पित तथा सांस्कृतिक समृद्ध परंपरा का प्रतीक

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प्रो. ललित तिवारी

प्रकृति को जोड़ता हुआ श्री नंदा देवी महोत्सव उत्तराखंड की कुलदेवी तथा सांस्कृतिक समृद्ध परंपरा है जिससे भद्रा पद की अष्टमी को मनाया जाता है। यह पर्व लोगों को जोड़ने के साथ खुशी एवम स्नेह आशीर्वाद देने वाला है। शक्ति की प्रतीक एवम हिमालय की शक्ति को समाहित करता यह पर्व पर्यावरण तथा प्रकृति एवं मानव के अभीष्ट संबंध को भी दिखाता है जो कि पर्यावरण के संरक्षण तथा परिस्थितिकी के सतत विकास हेतु जरूरी है।

नंदा देवी पर्वत भारत का दूसरा बड़ा तथा विश्व का 23वां पर्वत है जिसकी ऊंचाई 7817 मीटर है। श्री नंदा देवी महोत्सव अल्मोड़ा में 17वीं में और नैनीताल में 1903 में प्रारंभ हुआ तथा श्री राम सेवक सभा 1926 से इसे मानव समुदाय के सहयोग से आयोजित कर रही है।

प्रकृति को शक्ति का रूप देती नंदा देवी हिमालय के साथ वनस्पतियों को जोड़कर लोक पारंपरिक कलाकारों द्वारा मूर्त रूप दिया जाता है जो कला के साथ प्रकृति पूजन को दर्शाता है। नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण में जिन वनस्पति का प्रयोग होता है वो पारिस्थितिकी में घुलनशील तथा संरक्षण के साथ सतत विकास का संदेश देते हैं।

मां नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण में कदली केले का तना प्रयोग में लाया जाता है जो देव गुरु बृहस्पति के साथ लक्ष्मी का निवास है तथा मूसा पैराडिसियाका वनस्पति नाम एवम जल में डालते ही घुल जाता है। बांस जिसे बमबुसा प्रजाति है वो पवित्र एवं जल में घुलनशील है । इसके अलावा रूई जिसकी बाती बनाते तथा कपड़ा जिससे कपास से बनाते गोस्सीपियम आर्बोरियम वानस्पतिक नाम है जो आसानी से घुलता है तथा पवित्र है। मूर्ति निर्माण में प्राकृतिक रंगों के अलावा आसन भृंगराज जिसे आर्टमेशिया अनुआ कहते है से बनाते है जो औषधीय है।

इसके अलावा मां नंदा सुनंदा को डहलिया फूलो की माला तथा ब्रह्मकमल सौसरिया ओबोवलता चढ़ाया जाता है जो उच्च हिमालय इलाको में मिलता है। मां नंदा सुनादा की मूर्ति निर्माण पर ब्रह्म मुहूर्त में प्राण प्रतिष्ठा से शक्ति विराजती है जो प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम के साथ पर्यावरण एवं मानव के घनिष्ठ रिश्ते को दर्शाता है कि मानव प्रकृति के साथ बेहतर संबंध रखे तथा पर्यावरण का ध्यान रखे। नंदा महोत्सव में पौधारोपण होना भी प्रकृति संरक्षण का स्पष्ट संदेश देता है। प्रसाद भी गेहूं से बना हलवा के प्रकृति संरक्षण एवं सतत में मानव को रहने तथा परंपराओं को पर्यावरण से सीधे जोड़ता है।

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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