उत्तराखण्ड
विधायिकी पाने की खातिर खोई विधायिकी…न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम और हासिल लागा जीरो
राजनीति में ऐसा भी कभी कभार होता है जब कुछ बेहतर करने के खातिर नेताजी बड़ा कदम उठाते हैं और विधायिकी से इस्तीफा दे देते हैं। विधायकी से इस्तीफा भी विधायक बनने के लिए ही। मगर अंत में हासिल लगा जीरो… और ऐसा ही हुआ है बद्रीनाथ के पूर्व विधायक राजेंद्र भंडारी के साथ। कांग्रेस में रहते हुए वह कांग्रेस के विधायक बने। फिर उन्होंने इस्तीफा दिया इस शर्त पर कि उपचुनाव में भाजपा उन्हें टिकट देगी। विधायिकी पाने के लिए उन्होंने विधायिकी खोई और अब हासिल हुई हार। कांग्रेस में रहते हुए जब उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा दिया तो शायद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को इस बात की खुशी नहीं थी और शायद भाजपा कार्यकर्ता भी इस बात से नाराज थे कि कांग्रेस की पृष्ठभूमि से आए विधायक को सीधा टिकट दे दिया गयाऔर अब नतीजा सामने है।
उत्तराखंड के उपचुनाव में मंगलोर विधानसभा सीट पर कांग्रेस की विजय की जितनी चर्चा है उससे कहीं ज्यादा चर्चा इस बात की है कि बद्रीनाथ सीट पर भाजपा ने विजय हासिल नहीं की। वह भी तब जब वहां के पूर्व विधायक ही चुनाव लड़ रहे थे। राजेंद्र भंडारी के चुनाव हारने को लेकर के इस वक्त प्रदेश में तमाम तरह की बातें चल रही हैं और जो सबसे बड़ी बात चर्चा का विषय है वह यह है कि ना खुद ही मिला ना विसाल ए सनम…।
उत्तराखंड में हुए उपचुनाव में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। दोनों सीटें पार्टी के हाथ से निकल गई। मंगलौर सीट पर फिर भी भाजपा का कभी कब्जा नहीं रहा, लेकिन बदरीनाथ सीट कई मायनों में खास थी। चुनाव प्रचार में भी पूरी ताकत झोंकने के बावजूद भाजपा को बदरीनाथ सीट से हाथ धोना पड़ा।
बदरीनाथ और मंगलौर का चुनावी समर भाजपा के विजय रथ की कड़ी परीक्षा था, जिसमें भाजपा सफल नहीं हो पाई। मंगलौर सीट पर भाजपा ने करतार सिंह भड़ाना को मैदान में उतारा था, लेकिन भड़ाना कांग्रेस प्रत्याशी काजी मोहम्मद निजामुद्दीन से मात खा गए। वहीं बदरीनाथ में भाजपा ने राजेंद्र भंडारी पर भरोसा जताया था, लेकिन कांग्रेस के लखपत सिंह बुटोला से भंडारी मात खा गए।
हार ये तीन बड़े कारण
बदरीनाथ चुनाव जनता पर थोपा गया
मंगलौर सीट पर बसपा विधायक के निधन के बाद इस सीट पर उपचुनाव कराया जाना था, लेकिन बदरीनाथ में परिस्थिति जबरन पैदा की गई। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस विधायक राजेंद्र भंडारी भाजपा में शामिल हो गए। भंडारी खुद तो चले गए, लेकिन कार्यकर्ताओं में रोष रहा और इसे कांग्रेस ने मुद्दा बनाया। नतीजन यह भाजपा की हार तो कांग्रेस की कामयाबी का राज बन गया।
नाटकीय तरीके से कांग्रेस विधायक का भाजपा में शामिल होनानाटकीय तरीके से कांग्रेस विधायक का भाजपा में शामिल होना जनता को रास नहीं आया। भंडारी तो भाजपा में चले गए लेकिन समर्थक कांग्रेस में ही रह गए। वहीं भंडारी के भाजपा में आने से बदरीनाथ के भाजपा नेता और कार्यकर्ता खुश नहीं थे। उन्होंने खुले तौर पर तो इसका विरोध नहीं किया, लेकिन नतीजे संकेत दे रहे हैं। बदरीनाथ और मंगलौर सीट पर भाजपा की हार ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया है। लोकसभा चुनाव से पहले गढ़वाल मंडल की यही एकमात्र सीट थी, जो कांग्रेस के पास थी। लेकिन, कांग्रेस विधायक राजेन्द्र भंडारी भाजपा में शामिल हो गए। यह सब इतने नाटकीय तरीके से हुए की जो भंडारी 24 घंटे पहले जिन कपड़ों में भाजपा के विरोध में आक्रामक प्रचार कर रहे थे, वही भंडारी उन्हीं कपड़ों में दिल्ली में भाजपा को सदस्यता ले लेते हैं। मजेदार बात यह है कि भाजपा संगठन को इसकी हवा भी नहीं लगती है। शायद इस बात को न तो भाजपा के कार्यकर्ता ही पचा पाए और न ही बदरीनाथ की जनता।
मंगलौर सीट: जातीय समीकरण नहीं भेद पाई भाजपामंगलौर विधानसभा सीट पर कांग्रेस को जातीय समीकरणों का फायदा मिला। मंगलौर सीट एक ऐसी सीट है जो भाजपा कभी नहीं जीत पाई है। अल्पसंख्यक बहुल यह सीट एक बार हाजी तो एक बार काजी के पास रही है। हालांकि भाजपा ने करतार सिंह भड़ाना को टिकट देकर कुछ हद तक गुर्जर वोट को अपने पक्ष में किया। अल्पसंख्यक वोट बसपा ओर कांग्रेस में बंटा जरूर, लेकिन इस बार काजी ने यह सीट जीत लीकांग्रेस की जीत की वजहबदरीनाथ और मंगलौर विधानसभा सीट पर उपचुनाव में कांग्रेस ने अपनों पर विश्वास जताया था। पार्टी ने दोनों सीटों पर उन चेहरों को मैदान में उतारा, जो कांग्रेस से लंबे समय से जुड़े हैं। दिलचस्प बात यह है कि प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा ने जिन चेहरों पर दांव लगाया, वो दोनों ही उसकी सांगठनिक नर्सरी से नहीं थे।