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बाबासाहब की तपस्या

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अनिल धर्मदेश

इस बात में कोई संदेह नहीं कि लोकतंत्र व्यक्ति और समाज को स्वार्थी बना देता है। देश और समाज के लिए त्याग-तपस्या करने की भावना लोकतंत्र जनित अवसरवादिता के समक्ष धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जाती है। और अंततः एक व्यापक समूह राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व और उससे भी महत्वपूर्ण स्वामित्व के भाव को पूरी तरह भुला बैठता है।

हम भारतीय स्वार्थी बनें, इसी सोच से अंग्रेजों ने परतंत्र भारत पर सत्ता संचालन के लिए लोकतंत्र का मॉडल थोप दिया। अन्यथा हम अवसरवादी होने के बजाय स्वामित्वभाव से इतिहास के निर्णयों का आंकलन करते। और तब हमें पता चलता कि 19वीं सदी में अंग्रेज़ों के कुचक्र और षड्यंत्रों को पहचान कर अनेक सपूतों ने यथाशक्ति, यथापरिस्थिति निःस्वार्थ प्रयास किये।

वीर सावरकर ने पूरे भारत में अभियान चलाकर हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया। सावरकर दृष्टा थे, वह जान गए कि अंग्रेजों के जाते ही सेना में एक वर्ग विशेष के अधिपत्य का परिणाम क्या होगा? उसी कालखंड में धूर्त अंग्रेजों द्वारा स्थापित कांग्रेस के बहकावे में आकर देश का व्यापक समाज उनके एजेंटों के समक्ष दंडवत हो रहा था और एजेंट समूह सावरकर की दृष्टि को भांपकर उनके प्रयास को लांछनों से भर भी रहे थे। दुर्भाग्यवश यह कुचक्र आज भी जारी है।

ठीक उसी प्रकार बाबासाहेब के बलिदान और उनकी दृष्टि को भी इस देश का एक सशक्त वर्ग नहीं पहचान सका। अवसरवादी लोकतंत्र के जाल में फंसकर स्वार्थी हो चुका समाज का एक धड़ा आज भी भीमराव अंबेडकर के आरक्षण सिद्धांत को कोसता रहता है। यदि देश और धर्म के प्रति स्वामित्व का तनिक भी भाव हृदय में जीवित हो तो लोग समझ सकेंगे कि दो-दो विदेशी शक्तियां इस देश की डेमोग्राफी को बर्बाद करने के लिए सदियों से जुटी थीं। हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराने के लिए विधर्मी कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। आक्रमणकर्ता को षड्यंत्रपूर्वक भाई बना दिया गया था और उससे भी बुरा यह कि समाज का एक बड़ा वर्ग गांधी-नेहरू के सेक्युलरिज्म को स्वीकार भी चुका था।

किस-किस को समझाते और कितना टिक पाते अम्बेडकर? मगर उनकी जिजीविषा और विवेक ने काल, समय और परिस्थिति के अनुरूप वह निर्णय लिया, जिससे हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग विधर्मियों के प्रलोभन में न आ जाए और विधर्मी शक्तियां भी इस निर्णय को राजनीतिक समझकर हल्के में लें। अंतस में स्वामित्वभाव हो तो अनुभव होगा कि यदि आरक्षण का कवच न खड़ा किया गया होता तो देश की आधी से अधिक आबादी अबतक विधर्मी हो चुकी होती। और उस स्थिति में आज की दशाओं का आंकलन करने के लिए बांग्लादेश स्वयं में एक उदाहरण है।

अम्बेडकर को हिन्दू धर्म से कभी कोई समस्या नहीं थी। उन्हें चिंता थी तो केवल परिवारवादी जातिवाद से लगातार कमजोर होते हिन्दू धर्म की। बाबासाहेब की दृष्टि और तपस्या को देखकर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने विधर्मियों को भ्रमित करने के लिए ही अपना पंथ परिवर्तित किया। इसी बहाने उन्होंने दलित समाज के समक्ष उदाहरण भी रख दिया कि यदि वर्तमान हिन्दू रिवाजों से मुक्त भी होना है तो बौद्ध धर्म जैसे सनातनी पंथ की शरण लेनी है, किसी विदेशी का विधर्म नहीं अपनाना। उन्होंने आखिर तक अपना उपनाम नहीं बदला, इससे ही स्पष्ट है कि वह ब्राह्मण या सवर्ण विरोधी नहीं थे। वह परिवारवाद जनित अवसरवादिता से लगातार कमजोर होते भारत और हिन्दू धर्म की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए व्याकुल थे। व्यापक समाज के जागरण तक हिन्दू संख्याबल में कमजोर न पड़े, आरक्षण इसकी युक्ति थी।

बाबासाहेब के त्याग और तपस्या पर सिर्फ सिर्फ सवर्णों ने सवाल खड़े किए, ऐसा भी नहीं है। किसी भी कुचक्र से सत्ता हथियाने की लोकतांत्रिक युक्तियों के भ्रमजाल में फंसकर पिछड़े वर्ग से भी बाबासाहब के विचारों को अपनी सुविधा के अनुरूप अनाप-शनाप तरीके से परिभाषित और प्रचारित किया है।

माँ भारती के इन दृष्टा तपस्वियों के त्याग और निष्ठा को पूरा देश पहचाने, इसी कामना के साथ आज जन्मदिवस पर बाबासाहब बीमराव अम्बेडकर को शत-शत नमन।

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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