कस्तूरी स्पेशल
राहुल नहीं सोनिया ही फर्स्ट…
अनिल धर्मदेश वरिष्ठ स्तम्भकार
राजनीति सत्ता प्राप्ति का उपक्रम है जबकि कूटनीति का कार्य राजनीतिक विचारधारा का क्रियान्वयन। चुनावी हार-जीत के आधार पर राजनीति मुद्दों को पकड़ और छोड़ सकती है मगर सबसे विपरीत परिस्थिति में भी विचारधारा से समझौता नहीं किया जा सकता। इसीलिए कूटनीति सम-विषम परिस्थितियों में भी वैचारिक स्थिरता के संकेत खड़े करती रहती है। अन्यथा भारत में राष्ट्रवाद के जागरण के इस दौर में कांग्रेस पार्टी की तरफ से सावरकर और 370 पर अनर्गल बयानबाजी बहुत पहले बंद कर दी जाती। एक दशक में दर्जनों चुनाव हार जाने के बावजूद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से राम मंदिर, सनातन, सावरकर और 370 आदि मुद्दों पर वही अलोकप्रिय टिप्पड़ियां जारी हैं। ऐसे बयान राजनीति का नहीं बल्कि कूटनीति का हिस्सा हैं। कांग्रेस की तरफ से कुछ ऐसा ही संकेत लोकसभा चुनावों में रायबरेली सीट को लेकर भी दिया गया है।
राहुल गांधी का रायबरेली से चुनाव लड़ना तो राजनीति का हिस्सा है परंतु सोनिया गांधी का उनकी परंपरागत सीट को छोड़ देना एक पूर्णतः कूटनीतिक कदम है।राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से इतर यह धरातल का सत्य है कि सोनिया गांधी ने संसदीय राजनीति से अभी सन्यास नहीं लिया है। वह कोई इतना गंभीर रूप से अस्वस्थ भी नहीं कि रायबरेली से पर्चा दाखिल करने में असमर्थ हों। अन्यथा वह राहुल गांधी का नामांकन कराने स्वयं रायबरेली नहीं आतीं। अभी अप्रैल में ही उन्होंने राजस्थान में जनसभा की थी तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह चुनावी कार्यक्रमों में हिस्सा लेने में असमर्थ हैं। वह अभी भी डिजिटल माध्यमों से पार्टी और गठबंधन के समर्थन में चुनाव प्रचार कर रही हैं। जबकि सभी जानते हैं कि कांग्रेस कोर कमेटी की अहम बैठकें भी सोनिया गांधी के बिना पूरी नहीं होतीं। यही सारे चुनावी कार्य हैं, जो उन्हें रायबरेली से चुनाव लड़ने की स्थिति में भी करने होते। इसलिए यह निश्चित है कि सोनिया गांधी लोकसभा चुनावों में प्रत्यक्ष भागीदारी से स्वास्थ्य या आयु संबंधी कारणों से बाहर नहीं हुई हैं। बल्कि उन्हें चुनाव न लड़ाकर एक सुनियोजित रणनीति के तहत सुरक्षित किया गया है। यही कारण है कि लोकसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित किए जाने के पूर्व ही कांग्रेस पार्टी ने उन्हें राजस्थान से राज्यसभा भेज दिया। पार्टी की कूटनीति जानती है कि भारतीय राजनीति में सोनिया का अजेय क्रम कभी टूटना नहीं चाहिए। अक्सर यह दिखाई पड़ता है कि कांग्रेस में सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी ही दूसरा सबसे बड़ा चेहरा हैं। राजनीतिक दबाव में खड़गे को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने के बाद भी राहुल ही सभी महत्वपूर्ण फैसले करते हैं। उसी तरह पार्टी और विपक्षी खेमे में सोनिया गांधी का प्रभुत्व और महत्व स्थापित रखने के लिए उन्हें किसी भी राजनीतिक उठापटक से बचाकर रखना जरूरी है। राहुल गांधी को रायबरेली सीट से चुनावी मैदान में उतारे जाने का निर्णय स्वयं सोनिया का है या पार्टी थिंकटैंक का, यह तो कांग्रेस ही जाने परंतु यह तय है कि सोनिया गांधी की सहमति के बिना यह निर्णय पार्टी थिंकटैंक के लिए भी संभव नहीं था। क्योंकि उस स्थिति में स्वयं राहुल वायनाड के बाद दूसरी सीट से चुनाव लड़ने से इनकार कर सकते थे और उन्हें इसके लिए मनाने-समझाने की शायद ही किसी अन्य में ताकत हो।सोनिया गांधी का आभामंडल और पार्टी में उनका वर्चस्व सुरक्षित करने के दृष्टिकोण से कांग्रेस के रणनीतिकारों ने संभवतः सही निर्णय लिया हो। हालांकि इस अनिवार्यता की पूर्ति करते समय थिंकटैंक ने इसके दूरगामी द्वितीयक प्रभावों की व्यापक समीक्षा नहीं की। रायबरेली के चुनावी रण में राहुल के उतरने से पार्टी में उनका नंबर दो का तमगा तो बरकरार रहा परन्तु देश में इसका यह संदेश भी गया है कि खुद कांग्रेस पार्टी इस बार रायबरेली सीट जीतने को लेकर सशंकित है। उत्तर प्रदेश में तीन फीसद से भी कम जनाधार और मात्र 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस के लिए सोनिया गांधी का मैदान छोड़ना कोई अच्छा संकेत नहीं है।अन्यथा कोई वजह नहीं थी कि राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय सोनिया गांधी इस सीट को छोड़कर राज्यसभा के पिछले दरवाजे से संसद भेजी जातीं।इस निर्णय का एक अर्थ यह भी है कि कांग्रेस पार्टी की विचारधारा को संरक्षित-संचालित करने वाली शक्ति के लिए सोनिया का महत्व राहुल गांधी से कहीं अधिक है और खुद सोनिया गांधी भी अपने वर्चस्व के लिए राहुल गांधी की साख को दांव पर लगा सकती हैं। क्योंकि रायबरेली पर जीत-हार का जितना संशय सोनिया के लिए था उससे कहीं अधिक संदेह अब वहां राहुल की जीत को लेकर खड़ा हो गया है। यदि राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव जीत जाते हैं तो भी उनका संकट यहीं समाप्त नहीं होता। वायनाड और रायबरेली दोनों सीटों पर विजय की स्थिति में उन्हें किसी एक सीट को छोड़ना ही पड़ेगा। वह वायनाड में टिके रहने का वादा कर चुके हैं। इसका अर्थ हुआ कि उन्हें रायबरेली सीट छोड़नी होगी। अगर वह इसका उल्टा करते है तो भी बट्टा उनकी ही साख को लगना है और दक्षिण में मजबूत होती भाजपा के सामने उनका वायनाड छोड़ना भविष्य में पूरी पार्टी को कहीं बड़ी मुसीबत में डाल सकता है। दक्षिण के राज्य ही कांग्रेस की आखिरी उम्मीद हैं।