Connect with us

साहित्य-काव्य

संस्मरण : पंक में पद्म का अटल शिल्पकार, पुण्य तिथि पर ‘अटल-‘ व ‘अटल-दर्शन से साक्षात्कार

खबर शेयर करें -

अनिल धर्मदेश



‘गीत नया गाता हूँ।’ यह नयापन और मौलिकता ही अटल बिहारी वाजपेयी को कालजयी विचारक के रूप में स्थापित करती है। एक प्रधानमंत्री, एक राजनेता, एक पत्रकार, अनवरत संघर्षों का साक्षी और एक देशभक्त कवि। भाषा में जितना माधुर्य, आचरण में उतनी ही साफगोई और सादगी। उद्देश्यों के प्रति अद्वितीय वचनबद्धता तो प्रवंचनाओं पर मुखर कुठाराघात से कभी गुरेज नहीं। ऐसी तमाम बहुआयामी सकारात्मकता को सहेजने और पोषित करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सदाशयता का उदाहरण मात्र नहीं हैं, वह स्वयं में एक मीमांसा हैं, एक दर्शन हैं।

अटल जी के कार्यों व स्वभाव आदि से संबंधित घटनाओं पर हजारों स्मृतियां जीवंत हैं। तथापि देश को और विशेषकर नई पीढ़ी के लिए यह नितांत आवश्यक है कि वह उस महान विचारक की नीतियों और कूटनीति से भिज्ञ हो। उसे समझे और उसका मनन कर जीवन में सफलता के मूलमंत्र स्वरूप आचरित भी करे। प्रचंड अल्पमत में, विरोधी, स्वार्थी और असहयोगी विचारधाराओं को साधकर राष्ट्रोत्थान में सत्ता-शक्ति का सफल प्रयोग लोकतांत्रिक राजनिति में पूरे विश्व का संभवतः पहला और अकेला उदाहरण होगा।

अटल जी की नीतियों को स्पष्टता से समझने के लिए हमें उस दौर की परिस्थितियों और परिवेश को जानना पड़ेगा। 1998 में, जब अटल जी भारत का प्रतिनिधित्व करने आए, इससे पूर्व एक दशक में सात प्रधानमंत्रियों का अस्थिर शासन झेल कर कूटनीतिक दृष्टि से खिचड़ी हो चुकक देश और पांच-सात वर्ष पूर्व सोना गिरवी रखकर शासन का दैनिक खर्च जुटाने योग्य अर्थव्यवस्था उन्हें विरासत में मिली थी। आर्थिक और कूटनीतिक पटल पर क्षत-विक्षत राष्ट्र के समक्ष आतंकवाद, भारी व्यापार घाटा, नगण्य विदेशी मुद्रा भंडार और भारी वैश्विक ऋण जैसी वाह्य समस्याएं प्रखरता से खड़ी थीं। दूसरी तरफ राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने देश के भीतर प्रचंड जातिवाद, धार्मिक विद्वेष और अतिशय क्षेत्रवाद को स्थापित कर दिया था। सब तरफ से विषम परिस्थितियों के जाल में घिरे भारत को इस शिल्पकार ने विभिन्न मोर्चों पर अलग-अलग प्रयासों से महज चार-पांच वर्ष से विश्व की सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यस्था के रूप में पहचान दिला दी।

विकसित राष्ट्रों की सोहबत में भारत पर आंखें तरेरने वाले पाकिस्तान को अलग-थलग कर दिया। चीन और अमेरिका से लेकर यूरोप और पूर्वी एशिया तक के देशों का भारत के प्रति नजरिया बदल कर अटल जी ने भारत की पूरी विदेश नीति को नए सिरे से परिभाषित किया, जो आज भी स्थापित है। पोखरण परमाणु परीक्षण के माध्यम से विश्व को भारत की शक्ति का अनुभव कराकर उन्होंने जिस प्रकार आर्थिक प्रतिबंधों को उद्भव के लिए परिहार्य उत्प्रेरक के रूप में इस्तेमाल किया, वह एक कूटनीतिक दृष्टा का अद्वितीय उदाहरण है।

1998 में एनडीए सरकार बनने से ठीक पहले तक भारत-पाकिस्तान के आपसी रिश्ते बहुत खराब थे। पाक प्रायोजित घुसपैठ और आतंकवाद चरम पर था। स्मरण रहे कि वह आतंकवाद को संस्थागत व्यापार की तर्ज पर इस्तेमाल किये जाने का शुरुआती युग था। भारत में लगातार अस्थिर सरकारों और बदहाल अर्थव्यवस्था के दुष्प्रभाववश हमारी विदेश नीति भी रसातल पर थी। पाकिस्तान कश्मीर में भारतीय सेना की मौजूदगी को बड़ी आसानी से कटघरे में खड़ा करने और भारत की चेतावनी को धमकी बताने में सफल हो रहा था। भारत में हो रही आतंकी वारदातों को पाकिस्तान हमारे देश के भीतर का आक्रोश बताकर विश्व को संतुष्ट करने के सफल हो रहा था।

अमेरिका को प्रत्यक्ष और चीन को परोक्ष से साध कर उस दौर में पाकिस्तान की विदेश नीति भारत से बहुत आगे निकल गई थी। ऐसे में रूस की बेरुखी से स्थिति यह हो गई कि पाकिस्तान जहां हर मंच पर कश्मीर का राग अलाप रहा था, भारत के प्रतिनिधि अपनी जुबान पर कश्मीर का नाम लेने से थर्राते थे।

यह स्थिति क्यों खड़ी हुई? पाकिस्तान इतना दुस्साहस कैसे कर सका? और क्या वजह थी कि वैश्विक मंच पर वह लगातार बेदाग भी साबित हो जाता था? समस्या के मूल में भारत की संवादहीनता की नीति अपना दुष्प्रभाव दिखा रही थी। अटल जी ने इस पूरे घटनाक्रम का एक वैश्विक डिप्लोमेट की दृष्टि से आंकलन किया।

उनका अनुभव, उनकी दृष्टि सिर्फ समस्या को समझने तक सीमित नहीं थी वरन वह इससे मुक्ति के मार्ग भी तलाश रहे थे। सांकेतिक कठोरता और शाब्दिक मधुरता के तानेबाने में उन्होंने भारत की पूरी विदेश नीति को दुबारा गढ़ना शुरू किया। मई 1998 में पोखरण इसकी पहली कड़ी थी। भारत द्वारा परमाणु परीक्षण करते ही पाकिस्तान ने भी प्रत्युत्तर स्वरूप परमाणु परीक्षण कर दिया और यहीं वह अटल जी की कूटनीतिक चाल में फंस गया। भारत को अपनी ताकत दिखाने के चक्कर में पाकिस्तान ने अमेरिका को यह बताने की गलती कर दी कि चीन से उसकी प्रगाढ़ता का स्तर क्या है।

पर्दे के पीछे पाकिस्तान और चीन के रिश्तों की अंतरंगता दुनिया के सामने आ गई। अमेरिका जान गया कि पाकिस्तान ने चीन के शत प्रतिशत सहयोग से ही इतनी अल्पावधि में परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया। इसी के साथ अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के लिए पाकिस्तान को दुबारा परिभाषित करने का वक्त आ चुका था। विशेषकर चीन विरोधी राष्ट्रों ने पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण को बहुत ,गंभीरता से लिया।

परमाणु परीक्षण करके विश्व को सशक्त भारत का संकेत दे चुके अटल बिहारी वाजपेयी अब इसके समानांतर ही शाब्दिक माधुर्य की कूटनीति पर आगे बढ़ने लगे। वह मई-1999 में कारवां-ए-अमन की बस लेकर पाकिस्तान पहुंच गए। वहां उन्होंने अछूत मीनार-ए-पाकिस्तान की यात्रा से लेकर पाकिस्तान की सरजमीं से कश्मीर का मुद्दा उठाने की हिम्मत दिखाई। दिलों के दरवाजे खोलने का संकेत देकर ठप पड़ी द्विपक्षीय बातचीत को फिर से गति देने की उन्होंने जैसे मुहिम छेड़ दी।

भारत-पाकिस्तान के रिश्तों की मजबूती के लिए वह अभूतपूर्व प्रयासों का दौर था। अटल जी की कूटनीति से पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्तब्ध थे और जनरल मुशर्रफ भौचक्के। ‘आप पाकिस्तान में भी चुनाव जीत जाएंगे’। अटल जी के लिए तत्कालीन पाक पीएम नवाज शरीफ का यह बयान पाकिस्तान की कूटनीतिक स्तब्धता का द्योतक है।

मई-1999 में जब अटल जी शांति और सद्भाव का पैगाम लेकर लाहौर यात्रा पर थे, उस वक्त भी पाकिस्तान की सेना कबाइलियों के भेष में अपने सैनिकों को एलओसी के इस पार घुसपैठ करा रही थी। भारतीय सीमा के भीतर पाक सैनिक पक्के बंकर बना रहे थे। यह एक भारी सुरक्षा एवं गुप्तचर चूक थी। लाहौर यात्रा के महज तीन महीने बाद, जुलाई-1999 में देश पर परोक्ष युद्ध थोपा जा चुका था। सियाचीन में दोनों देशों की सेनाओं की अनुपस्थिति का अनुचित लाभ उठाकर पाकिस्तान ने साजिश रची तो पाक की धरती पर ‘जंग नहीं होने देंगे’ कहने वाले अटल बिहारी ने यद्ध का ऐलान कर दिया। जांबाज भारतीय सैनिकों ने उम्मीद के मुताबिक पाकिस्तानियों के दांत खट्टे कर दिए। भारत अपनी भूमि पर वापस कब्जा जमाने में सफल हो गया।

कारगिल युद्ध में पाकिस्तान ने दूसरी चूक कर दी। उसने भारतीय सैनिकों के हांथों ढेर हुए अपने ही सैनिकों और आतंकवादियों को स्वीकारने से इनकार कर दिया। मारे गए घुसपैठियों का अंतिम संस्कार भी भारत की सेना ने ही कराया। यहीं से आतंकी संगठनों का पाकिस्तान से विश्वास उठने की नींव पड़ी। दुनिया और विशेषकर भारत को आतंकवाद से दहलाने वाला पाकिस्तान अब खुद भी आतंकियों के निशाने पर आ गया।

कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को बुरी तरह पटखनी देने ले बाद, भारत में पाक प्रयोजित घुसपैठ और आतंकी घटनाओं के बावजूद उन्होंने विभिन्न स्तर पर पाकिस्तान से बातचीत जारी रखने का संकेत दिया। जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा पाकिस्तान में तख्ता पलट करके राष्ट्रपति बनने पर 2001 में आगरा शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ। दुनिया को भारी तामझाम दिखाकर भी भारत अनुकूल शर्तें पूरी नहीं होने की आड़ में अटल जी ने सम्मेलन को असफल कर दिया।

दुनिया को मानना पड़ा कि भारत की मंशा साफ थी मगर अविश्वसनीय पाक प्रमुख इस शिखर वार्ता की असफलता का कारण बने। भारत-पाकिस्तान के बीच जारी बातचीत को दुनिया ने भारत की विशाल हृदयता के रूप में देखा। वैश्विक मंचों पर जहां अभी तक पाकिस्तान कश्मीर का सफल राग अलाप रहा था, अब वहां पाक प्रायोजित आतंकवाद और अमन के प्रति भारत के प्रयासों की चर्चाएं हो रही थीं।

उधर 9/11 के बाद अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले का भी अटल जी पूरा लाभ लेने के लिए सक्रिय थे। उन्होंने न सिर्फ अमेरिका को साधा बल्कि अफगानिस्तान में भारत की महती भूमिका भी सुनिश्चित कर दी और भारत ने अफगानिस्तान में अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दिया। साथ ही भारत विश्व को यह भी बताने में सफल हुआ कि अफगानिस्तान में स्थापित आतंकवाद का पोषक असल में पाकिस्तान ही है। नतीजतन अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान में भी डेरा जमा लिया।

पाकिस्तान की आधा दर्जन हवाई पट्टियां और बेस अमेरिकी सेना के कब्जे में आ गये और शम्सी एयर बेस से पाकिस्तान की अपनी धरती पर ही ड्रोन हमले शुरू हो गए। यहां तक पाकिस्तान की कूटनीति पूरी तरह तार-तार जो चुकी थी। दूसरी तरफ परमाणु परीक्षण के कारण भारत-पाकिस्तान पर लगे वैश्विक आर्थिक प्रतिबन्धों में वहां की अर्थव्यवस्था को बुरे से पस्त कर दिया था। अमेरिकी सैन्य कार्रवाई झेलने के लिए अब पाकिस्तान मजबूर था और इसके कारण स्थानीय आतंकी संगठन अब खुद उसके खिलाफ साजिशें रचने लगे।

इन सब घटनाओं का प्रभाव ही था कि पाकिस्तान अब घुटनों पर आ चुका था। ऐसे में सीमा पर दोनों तरफ से लगातार हो रही गोलीबारी को विराम देने के लिए अटल जी ने रमजान पर विख्यात सीजफायर का ऐलान कर वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान से सुरक्षित बढ़त सुनिश्चित कर दी।

वह जानते थे कि लाहौर में उनके बैठने के स्थान को 40 बार धोने वाले पाकिस्तान की मानसिकता उनके सद्भाव से नहीं बदलने वाली। आतंकवाद को व्यवसाय बनाने वाले लोग इतनी सहजता से अपने चेहरे पर लगे नकाब नहीं उतारेंगे। फिर भी उनके प्रयास अटल रहे क्योंकि वह पाकिस्तान को भारत की नजर से नहीं देख कर विश्व के दृष्टिकोण से देख रहे थे। वह दुनिया के नजरिये और प्रतिक्रिया को भली भांति समझ रहे थे। उन्होंने पाकिस्तान के साथ भारत की मैत्री और विवादित मुद्दों के शांतिपूर्ण निपटारे के लिए अपने अथक प्रयासों से दुनिया को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि भारत की नीयत में कोई खोट नहीं है।

जबकि बार-बार भारत की पीठ में छुरा घोंपने वाले पाकिस्तान की नीयत वास्तव में संदेहास्पद है। परिणामस्वरूप अमेरिका की भी नीति बदलने लगी। वह पाकिस्तान से दूर होने लगा, जबकि भारत अब अमेरिका के साझीदार के रूप में उभर रहा था। अटल जी ने अकेले पाकिस्तान को साध कर भारत की समूची विदेश नीति को ही नया स्वरूप दे दिया। उन्होंने पाकिस्तान के बहाने अमेरिका को भारत के प्रति अपना नजरिया बदलने के लिए मजबूर किया क्योंकि अटल जी समस्त विश्व को यह बताने में सफल रहे कि दुनिया भर में आतंकवाद को पोषित करने वाली ताकतों को पाकिस्तान का संरक्षण प्राप्त है।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर त्रासदी के बाद आतंक के खिलाफ मुहिम छड़ने का दावा करने वाले अमेरिका के लिए अब भारत सबसे महत्वपूर्ण था क्योंकि 9/11 के बाद अमेरिका जो कह रहा था, वह अटल जी दो वर्ष पहले से विश्व को बता रहे थे।

दूसरी तरफ अटल जी चीन के प्रति भी नए दृष्टिकोण से शुरुआत कर चुके थे। द्विपक्षीय रिश्तों में विश्वसनीयता और भविष्य के लाभ दर्शाने के लिए उन्होंने भारत, रूस और चीन के त्रिकोण की अवधारणा रखी, जो आज ब्रिक्स के रूप छह देशों का सशक्त समूह बन चुका है। ‘पड़ोसी नहीं बदलते’ की उनकी नीति का परिणाम था कि चीन विवादित मुद्दों पर बातचीत के लिए तैयार हुआ।

हालांकि बीच में एक दशक के यूपीए काल में इस नीति के पूरी तरह ठंडे बस्ते में चले जाने के कारण भारत और चीन के बीच की दूरियां बहुत बढ़ गईं। ‘लुक टू ईस्ट’ की उनकी नीति ने दुनिया को जता दिया कि भारत के लिए गुटनिरपेक्षता अब अतीत का एक अध्याय बन गया है। सार्क देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों को अटल जी ने जितना प्रगाढ़ बनाया, संभवतः वह आज या अतीत में भी कभी ऐसे नहीं थे। संयुक्त सार्क गणराज्य की उनकी अवधारणा( जिसमें यूरो की तर्ज पर सार्क देशों की समान मुद्रा की कल्पना शामिल थी) पाकिस्तान के कारण यदि रद न होती तो आज दक्षिण एशिया व्यापार में समस्त विश्व का प्रतिनिधित्व कर रहा होता।

अटल जी की कुशल कूटनीति, दूरदर्शिता और वाक्पटुता से पूरा विश्व और विशेषकर सशक्त राष्ट्र आश्चर्यचकित भी थे और प्रभावित भी। यही वजह थी कि वह दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के समूह जी-8 की बैठक में आमंत्रित होने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। यही नहीं, उन्हें बतौर प्रथम भारतीय प्रधानमंत्री, संयुक्त राष्ट्र की महासभा (UNGA) को संबोधित करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। अटल जी के शासन का ही करिश्मा था कि 1998 में भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति स्वयं भारत की यात्रा पर आए। भारत में किसी अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष का यह 21 वर्षों बाद आगमन था।

आंतरिक मोर्चे पर भी सरकार की रफ्तार अद्वितीय रही। सर्वशिक्षा से लेकर पल्स पोलियो और उदारीकरण से विनिवेश तक जिस व्यापकता से काम हुए, उसने अर्थव्यवस्था को नई ऊर्जा व गति दे दी। ग्राम-सड़क योजना, टेलीकॉम सुधार, और स्वर्णिम चतुर्भुज जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को मूर्त करके सरकार देश-विदेश के उद्यमियों को निवेश के लिए सर्वोत्तम बाजार की उपलब्धता का संकेत देने में भी सफल रही। लगातार किए गए सुधारों से बेहतर आर्थिक प्रगति, नियंत्रित मुद्रा स्फीति और निवेश-निर्यात में अप्रत्याशित वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत वैश्विक पटल पर अपार संभावनाओं वाले बाजार के रूप में उभर कर सामने आया।

पाँच वर्ष के कार्यकाल में अटल जी ने देश को प्रत्येक मोर्चे पर जिस प्रकार शीर्ष तक पहुंचाया, वह सही अर्थों में अकल्पनीय और शोध योग्य है। 24 छोटे-बड़े राजनीतिक दलों के गठबंधन को सहेजकर कार्यकाल पूरा करना उनकी सर्वस्वीकार्यता और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता का ऐतिहासिक उदाहरण भी है।

🙏🚩🙏🚩🙏
अनिल धर्मदेश

Continue Reading

संपादक - कस्तूरी न्यूज़

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in साहित्य-काव्य

Advertisiment

Recent Posts

Facebook

Trending Posts

You cannot copy content of this page