अंतरराष्ट्रीय
धार्मिक उन्माद बनाम धर्मों का प्रयाग, पढ़िए इजरायल हमले पर अनिल धर्मदेश का महत्वपूर्ण आलेख
अल अक्सा मस्जिद और येरुशलम को लेकर दशकों से जारी विवाद के बीच हमास द्वारा इजराइल पर अप्रत्याशित हमले ने खाड़ी क्षेत्र में एक बार फिर गंभीर तनाव उत्पन्न कर दिया है। इजराइल और फिलिस्तीन के साथ ही लेबनान और ईरान भी इस युद्ध से किसी न किसी प्रकार जुड़ गए हैं, जबकि इस आग के अरब तक फैलने की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। योम किप्पुर युद्ध की पचासवीं बरसी के दिन किए गए हमले में इजराइल को भारी क्षति उठानी पड़ी और अभी तक उसके 700 से अधिक नागरिक व सैनिक मारे गए हैं, 1600 घायल हैं जबकि 100 से अधिक लोग हमास आतंकियों द्वारा बंधक बना लिए गए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार बंधकों में महिलाएं, बच्चे और वृद्ध भी हैं।इस क्षेत्र में संघर्षों का इतिहास बहुत पुराना है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम, तीनों ही धर्मों के इस महत्वपूर्ण तीर्थ पर अधिकार को लेकर विगत एक हजार वर्षों में हुई सैकड़ों लड़ाइयों में अबतक लगभग एक करोड़ लोग जान गंवा चुके हैं, जिसमें धार्मिक असहिष्णुता के कारण द्वितीय विश्वयुद्ध काल में अकेले 60 लाख यहूदियों का नरसंहार शामिल है। जबकि इससे पहले 900 ईसा पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी तक स्थान अधिकार को लेकर हुए अनेक युद्धों में लाखों ईसाई और यहूदी मारे गए। 19 वीं शताब्दी में योम किप्पुर और छह दिन के अरब युद्ध से लेकर अभी तक हुई अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयों में लाखों मुस्लिमों और यहूदियों की जानें गयी हैं। ऐतिहासिक रूप से येरुशलम यहूदी साम्राज्य की राजधानी था। यहूदी धर्म का पवित्रतम सोलोमन मंदिर भी येरुशलम में ही है, जिसका निर्माण 957 ईसा पूर्व कराया गया था। लगभग 1500 वर्षों का यहूदी शासन ईसाई आक्रमणकारियों द्वारा येरुशलम पर विजय के बाद समाप्त हुआ और 561 ई. में यहां सेंट मेरी चर्च की स्थापना हुई।
ईसाई धर्म की मान्यताओं के अनुसार येरुशलम ईसा मसीह की कर्मस्थली थी। सातवीं शताब्दी के आरंभ में अरब के इस्लामिक आक्रमणकारियों ने येरुशलम को जीत लिया और यहाँ अल अक्सा मस्जिद का निर्माण कराया गया। इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार हजरत मुहम्मद ने येरुशलम से ही स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया था।फिलिस्तीन और इजराइल के बीच दशकों से जारी संघर्ष हो या यहूदी होलोकास्ट की बर्बरता, अपने-अपने धार्मिक महत्व के कारण येरुशलम पर अधिकार ही इन संघर्षों का मुख्य कारण रहा है। जैसे वर्तमान में हमास के हमले पर इजराइल द्वारा पलटवार करते ही अरब के साथ-साथ पूरी दुनिया के मुस्लिम फिलिस्तीन के समर्थन में खड़े हो गए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दुनिया के तीन महत्वपूर्ण धर्मों के अनुयायियों के मोक्ष-धाम येरुशलम का नाम अंतहीन अमानवीयता और अगणित नृशंस हत्याओं से भी जुड़ गया है। जबकि होना यह चाहिए था कि येरुशलम पूरी दुनिया के लिए मानवीयता और प्रकृति की रक्षा का केंद्र बनता। धर्मों के समागम से ऐसी समरसता का सृजन होना चाहिए था, जिसके प्रति आस्था और विश्वास से संसार की बड़ी से बड़ी समस्या और टकराव का समाधान संभव हो पाता।येरुशलम दुनिया का एकमात्र ऐसा शहर नहीं है, जिससे दो या तीन धर्मों की आस्था जुड़ी हो। भारत में इसके अनेक उदाहरण हैं। अयोध्या और कैलाश पर्वत हिन्दू व जैन दोनों धर्मों का प्रमुख तीर्थ है।
इसी प्रकार हिमाचल और उत्तराखंड में हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के अनेक तीर्थ हैं। हिन्दुओं की आस्था का एक प्रमुख केंद्र काशी भी है, जहां विश्वेश्वर महादेव का ज्योतिर्लिंग है। ऋग्वेद काल और उसके उत्तरोत्तर सभी हिन्दू धर्मग्रंथों में काशी और उसके वैदिक युग का वर्णन मिलता है, चौथी शताब्दी के आसपास काशी का नाम वाराणसी हो गया। हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव की नगरी काशी में ही बौद्ध धर्म का विश्वविख्यात और प्रमुख तीर्थ स्थल सारनाथ भी है, जहाँ भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया था। यहीं मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तंभ और गुप्त काल में पूर्ण हुआ धमेख स्तूप भी है, जो विश्व भर के बौद्ध मतावलंबियों का एक महत्वपूर्ण स्मारक है। काशी से जैन धर्म की भी गहरी आस्था जुड़ी है। जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, आठवें तीर्थंकर चंद्र प्रभु, 11वें तीर्थंकर श्रेयांस नाथ और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जन्मस्थली काशी है। सातवें तीर्थंकर को दीक्षा भी वाराणसी में ही प्राप्त हुई थी। काशी में भगवान पार्श्वनाथ का प्राचीन मंदिर आज भी उपस्थित है, जहां पूरे विश्व से जैन धर्म के लोग दर्शन-पूजन के लिए आते हैं।ऐसा भी नहीं है कि हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म का काशी से सिर्फ धार्मिक संबंध ही रहा है।
सम्पूर्ण भारत तीनों ही धर्मों की मातृभूमि है। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि किसी न किसी कालखंड में इन धर्मों के अनुयायी राजाओं ने वाराणसी पर राज्य भी किया। लगभग 200 ईसा पूर्व से पहली शताब्दी तक उत्तर भारत पर कुषाण राजवंश के शासन था और इसके पश्चात लगभग पांच शताब्दियों तक गुप्त वंश के राजाओं ने शासन किया। यह दोनों ही राजवंश बौद्ध धर्म के उपासक थे और इनके कालखंड में ही बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार भी हुआ। इसी प्रकार जैन धर्म के तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी के राजा अग्रसेन के पुत्र थे। जबकि काशी पर हिन्दू शासकों का लगभग तीन हजार वर्षों का लिखित इतिहास उपलब्ध है। उस कालखंड में भी राजसत्ता के लिए अनेक युद्ध हुए, जिसके कारण अनेक धर्मग्रंथों को नुकसान भी पहुंचा परंतु धार्मिक प्रतिशोध के रूप में किसी एक धर्म द्वारा किसी दूसरे की आस्था और उसके केंद्र का वैसा अतिक्रमण नहीं हुआ, जैसा खाड़ी के पश्चिमी क्षेत्र में दिखता है।
काशी पर मुगलों आदि के आक्रमण व शासन के दौरान काशी विश्वनाथ सहित अनेक मंदिर व धर्मस्थल तोड़े गए मगर स्थानीय निवासियों व देश भर के राजाओं(चाहे वह सिख, बौद्ध या जैन धर्म का ही अनुयायी क्यों न हो) के सहयोग से मंदिरों का पुनर्निर्माण भी होता रहा। उत्तर भारत में राज्य और सत्ता के लिए हुए अनगिनत युद्ध और रक्तपात के बाद भी काशी में सभी धर्मों और उनकी शिक्षाओं के समान आदर की प्रथा सदियों पूर्व से लेकर आज तक समूचे विश्व के लिए अनुकरणीय है। वाराणसी में सामान्य नागरिक से लेकर धर्मज्ञ तक, सभी एक-दूसरे के कार्यक्रमों में न सिर्फ सम्मिलित होते हैं बल्कि यहां सभी धर्मों की शिक्षाओं को मोक्ष के समान मार्ग के रूप में स्वीकार भी किया जाता है। अनिल धर्मदेश,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभ लेखक।