Connect with us

others

नरेन्द्र मोदी को हराने का गणित लेकर तो बहुत से लोग घूम रहे हैं, लेकिन किसी के पास जीत का रसायनशास्त्र नहीं है

खबर शेयर करें -

देश के बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग लंबे अर्से से यह गुत्थी नहीं सुलझा पा रहा है कि मोदी हारते क्यों नहीं? मतलब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हराया कैसे जाए? फिलहाल उन्होंने इस समस्या के हल के लिए कुछ कथित विशेषज्ञों को भी जोड़ लिया है। सब मिलकर अभियान में जुट गए हैं। निराशा धीरे-धीरे हताशा में बदल रही है, पर अब इसका जिम्मा लाल बुझक्कड़ों ने भी ले लिया है। वे कह रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी को हराया जा सकता है। तो भाई हराओ न।

खुद को चुनावी रणनीतिकार बताने वाले प्रशांत किशोर ने मुनादी कर दी है कि मोदी को हराया जा सकता है। सारे गैर-भाजपा दलों के नेता पूछ रहे हैं, जल्दी बताओ कैसे, क्योंकि उन्हें तो कोई रास्ता सूझ नहीं रहा। प्रशांत किशोर ने कोई सुरंग खोद ली है क्या? इसे कहते हैं परस्पर लाभ का संबंध। इस एक वाक्य से प्रशांत किशोर को अगले दो साल के लिए काम मिल जाएगा और नरेन्द्र मोदी विरोधी नेताओं को उम्मीद। कहते ही हैं कि उम्मीद पर दुनिया कायम है। इस समय विरोधी दलों की दुनिया प्रशांत किशोर के भरोसे पर टिकी है। उन्हें लग रहा है कि जिस तरह भगवान कृष्ण ने अपनी तर्जनी पर गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की थी, उसी तरह प्रशांत किशोर उन्हें सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा सकते हैं। अब देखना यह है कि इसका बिल कौन भरता है?

राजनीति या जीवन के किसी क्षेत्र में कोई अजर-अमर नहीं होता, पर किसी के चाहने से तो कोई खत्म नहीं होता। आजादी के बाद से पहले जनसंघ और फिर भाजपा के खिलाफ उसके राजनीतिक विरोधियों के पास एक रेडीमेड फार्मूला था। जब भी भाजपा बढ़ती हुई दिखाई देती थी, ‘सेक्युलरिज्म खतरे में है’ का नारा लगाकर सब एक हो जाते थे। पिछले आठ साल में इस नारे का हश्र ‘भेडिय़ा आया-भेडिय़ा आया’ वाला हो गया है। लोग समझ गए हैं कि कोई भेडिय़ा है ही नहीं, तो वह आएगा कहां से? उन्हें समझ आ गया है कि यह भेडिय़ा तो दरअसल सेक्युलरिज्म ही था, जो भेड़ की शक्ल में घूम रहा था। उसने इस देश की सनातन संस्कृति को हजम करने का प्रयास किया। अपने इस प्रयास में वह सफल भी हो जाता, यदि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री न बनते। इसलिए मोदी के प्रधानमंत्री बनने को जो लोग केवल भाजपा के सत्ता में आने के रूप में देखते हैं, वे इस परिवर्तन के गूढ़ अर्थ को समझने में विफल रहे हैं। किसी पार्टी का सत्ता में आना या न आना एक सामान्य घटना है, पर मोदी का प्रधानमंत्री बनना एक दीर्घकालिक प्रभाव वाली परिघटना है, जो देश को उसके पुराने सांस्कृतिक वैभव की ओर ले जा रही है। क्या यह सामान्य बात है कि दशकों से जिस सेक्युलरिज्म को पाल-पोसकर रखा गया, सिर्फ आठ साल में उसका कोई नामलेवा नहीं रह गया। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में किसी को सेक्युलरिज्म की बात करते हुए किसी ने सुना क्या?

2014 से पहले देश की राजनीति सेक्युलरिज्म बनाम सांप्रदायिकता के खेमे में बांट दी गई थी। परिभाषा बिल्कुल स्पष्ट थी। हिंदू विरोध एवं मुस्लिम तुष्टीकरण के पैरोकार सेक्युलर कहलाते थे और हिंदू हित की बात करने वाले और तुष्टीकरण का विरोध करने वाले सांप्रदायिक। सेक्युलर खेमे वाले अच्छे लोग और सांप्रदायिक खेमे वाले बुरे लोग। कहीं कोई दुविधा नहीं थी। नरेन्द्र मोदी ने सब बदल दिया। सेक्युलरिज्म को ऐसा बना दिया कि इसे तमगे की तरह सीने पर लगाकर घूमने वाले अब उसका नाम लेने में भी शर्माते हैं। आम लोगों का हाल यह है कि जो मोदी कहें, वही सही।

नरेन्द्र मोदी को हराने के लिए प्रशांत किशोर का फार्मूला है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग मोदी/भाजपा के खिलाफ वोट करते हैं और यदि उन्हें एकजुट कर लिया जाए तो मोदी को हराना संभव है। कुछ समय पहले एक बड़े पत्रकार-एंकर प्रशांत किशोर से याचना कर रहे थे कि मोदी को हराने का फार्मूला तो बता दीजिए। दूसरे बड़े पत्रकार की भविष्यवाणी थी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को तीन बार वाकओवर मिला, लेकिन इस बार नहीं मिलेगा। नतीजे आने के बाद उन्होंने मोदी को हराने का नायाब फार्मूला देते हुए लिखा कि 50 प्रतिशत हिंदू वोट भाजपा को मिलते हैं। यदि इनमें फूट डाल दी जाए तो मोदी को हराया जा सकता है। तो सारे नीम-हकीम भाजपा को हराने का फार्मूला बता रहे हैं।

मोदी विरोधी बुद्धिवादियों के वोट से देश में सरकार बनती तो मोदी कब का हार चुके होते। विपक्षी खेमा कोई नेता तक तो तय नहीं कर पा रहा। कहा जा रहा है कि जीतने के बाद तय हो जाएगा। यह असंभव बात नहीं है, पर जरा संभावित विकल्पों पर गौर कर लें। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते उसके नेता के तौर पर राहुल गांधी सामने हैं। जिम्मेदारी और राहुल गांधी दो परस्पर विरोधी बाते हैं। जो पहलवान अखाड़े में उतरने को ही तैयार न हो, उसके कुश्ती जीतने की संभावना जताने वालों की समझ के बारे में कुछ कहना कठिन है। दूसरा नाम शरद पवार का है। उन्हीं के शब्दों में, कई दशकों से उनका नाम दाऊद इब्राहिम से जोडऩे की कोशिश हो रही है। सच जो भी हो, लेकिन प्रवर्तन निदेशालय ने उनकी पार्टी और परिवार के लिए पनघट की डगर कठिन बना दी है। तीसरा नाम ममता बनर्जी का है। उनके साथ उनके अलावा और कौन आएगा, कहना कठिन है। उन्हें विकल्प बनाने का बीड़ा उठाने वाले प्रशांत किशोर उनसे पीछा छुड़ा रहे हैं या ममता उनसे, यह पता नहीं लग रहा। एक और पहलवान पिछले कुछ महीने से मिट्टी पोतकर अखाड़े में ताल ठोंक रहे थे। उनका नाम है के. चंद्रशेखर राव। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से उन्होंने चुप्पी साध ली है है। जो लोग अरविंद केजरीवाल को विकल्प के रूप में सोच रहे हैं, वे अपने जोखिम पर ही ऐसा कर सकते हैं, लेकिन बात केवल नेता की नहीं है। सवाल यह है कि क्या मोदी हटाओ/हराओ किसी दल या दलों का एकमात्र चुनावी नारा हो सकता है? दूसरा प्रश्न है कि मोदी को हराकर करेंगे क्या? विपक्ष के किसी नेता, पार्टी और उनको जिताने का ठेका लेने वालों के पास इसके अलावा कोई मुद्दा नहीं है। मोदी को हराने का गणित लेकर बहुत से लोग घूम रहे हैं, लेकिन किसी के पास जीत का रसायनशास्त्र नहीं है। समस्या यह है कि विपक्षी दल इसे समझने को तैयार नहीं।

साभार न्यू मीडिया

Continue Reading

संपादक - कस्तूरी न्यूज़

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in others

Advertisiment

Recent Posts

Facebook

Trending Posts

You cannot copy content of this page