उत्तराखण्ड
Mahatma Gandhi’s 74th death anniversary : जानिए उत्तराखंड से जुड़ी महात्मा गांधी की पांच अहम बातें
Mahatma Gandhi’s 74th death anniversary : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को देवभूमि उत्तराखंड की धरती से खास लगाव था। स्वतंत्रता आंदोलन के सूत्रधार बापू ने हिमलयी राज्य की कई यात्राएं कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ यहां के लोगों की मुखालफत की आवाज को और बुलंद किया। लोगों में राष्ट्रीय चेतना का संचार कर अहिंसा की लड़ाई को धार दी। बताया जाता है कि बापू ने वर्ष 1915 से 1946 तक तकरीबन छह बार उत्तराखण्ड की यात्रा कीं।
छह बार उत्तराखंड के दौरे पर पहुंचे बापू
पहली बार बापू वर्ष 1915 के अप्रैल महीने में कुम्भ के मौके पर हरिद्वार आये और ऋषिकेश व स्वर्गाश्रम भी गए। 1916 में फिर हरिद्वार आए और स्वामी श्रद्धानन्द के विशेष आग्रह पर उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी में व्याखान दिया। जून 1921 में वे नैनीताल जिले के खैरना होते हुए ताड़ीखेत पंहुचे। तब उन्होंने के असहयोग आन्दोलन के दौरान खोले गये प्रेम विद्यालय के वार्षिकोत्सव में भाग लिया। 1929 में जब गांधी जी का स्वास्थ्य कुछ खराब चल रहा था तो वे पंडित नेहरू के आग्रह पर स्वास्थ्य लाभ करने कुमांऊ की यात्रा पर आए। अपनी दूसरी कुमांऊ यात्रा के दौरान वे 18 जून 1931 को वे शिमला से नैनीताल पंहुचे। मई 1946 में वे पुनः मसूरी आये और वहां आठ दिन तक रहे।
कुमाऊं की पहली यात्रा में 14 दिन कौसानी रहे बापू
स्वास्थ्य लाभ के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर 1929 में कुमाऊं की यात्रा पर पहुंचे महात्मा गांधी ने कौसानी में 14 दिन बिताए। यहीं से आंदोलन की धार तेज की। कुमाऊं यात्रा में छुआछूत जैसी कुरीति पर भी प्रहार किया। यही कारण रहा कि 22 दिवसीय यात्रा में आंदोलन के लिए दान में मिले 24 हजार रुपये भी गांधीजी ने हरिजन कोष में दे दिए। यहीं पर उन्होंने अनासक्ति योग पुस्तक की प्रस्तावना लिखी। अनासक्ति आश्रम आज भी आजादी की प्रेरणा देता है।
26 स्थानों पर दिया था भाषण
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सफलतापूर्वक चलाए गए कुली बेगार आंदोलन से प्रभावित होकर बापू पहली बार कुमाऊं आए। 22 जून को वह कौसानी से पैदल और डोली के सहारे बागेश्वर मुख्यालय पहुंचे, जहां स्वराज भवन की नींव रखी। एक दिन रुकने के बाद फिर कौसानी के लिए प्रस्थान कर गए। कुमाऊं की पहली यात्रा में महात्मा गांधी ने 26 स्थानों पर भाषण दिए। सभी में स्वदेशी, स्वावलंबन, आत्मशुद्धि, खादी प्रचार व समाज में व्याप्त कुरीतियों को त्यागने पर जोर दिया। कुमाऊं भ्रमण में उनके साथ प्रमुख रूप से बद्री दत्त पांडे, गोविंद बल्लभ पंत, हीरा बल्लभ पांडे, मोहन मेहता, विक्टर मोहन जोशी, रुद्रदत्त भट्ट भी मौजूद रहे।
बागेश्वरी चरखे ने आगे बढ़ाया स्वदेशी आंदोलन
बागेश्वर प्रवास के दौरान जीत सिंह टंगडिय़ा ने बापू को स्वनिर्मित चरखा भेंट किया था। चरखे की विशेषता थी कि वह कम समय में ज्यादा ऊन कात लेता था। उसी चरखे को देखकर तब गांधीजी ने कहा था कि यह स्वदेशी आंदोलन को आगे बढ़ाने में मदद करेगा। वर्धा पहुंचने के बाद बापू ने विक्टर मोहन जोशी को पत्र लिखकर एक और चरखा मंगाया, जिसे नाम दिया बागेश्वरी चरखा। जीत सिंह ने बाद में उस चरखे में और बदलाव किया, जो कताई के साथ ही बटाई भी कर लेता था। 1934 में तो उन्होंने घर में चरखा आश्रम की ही स्थापना कर दी।
कुमाऊं की दूसरी यात्रा
बापू कुमाऊं की दूसरी यात्रा में 18 मई 1931 को नैनीताल पहुंचे। कुमाऊं कमिश्नरी के तत्कालीन तीन जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा व ब्रिटिश गढ़वाल ( पौड़ी) के कांग्रेस कार्यकर्ताओं का सम्मेलन भी आयोजित किया। यह कुमाऊं परिषद के 1926 में कांग्रेस में विलय होने के बाद पहला बड़ा राजनैतिक सम्मेलन था। गांधीवादी विचारक गोपाल दत्त भट्ट कहते हैं कि महात्मा गांधी ने कुमाऊं में आजादी की अलख जगाई। आने वाली पीढिय़ां भी उनका संदेश याद रखेंगी।