Connect with us

कस्तूरी स्पेशल

आपातकाल की निरर्थक बरसी, पढ़िए आपातकाल पर युवा लेखक और विचारक अनिल धर्मदेश का महत्वपूर्ण लेख

खबर शेयर करें -

अनिल धर्मदेश

समूचे समाज को बंधक बनाकर थोपा गया कोई निर्णय अन्याय की वह प्रतिमूति होती है, जिसे प्रतिरोध के झंझावात में उलझकर ध्वस्त होना ही पड़ता है। इसके ठीक उलट यदि देश और समाज की चेतना समय रहते अराजक फैसलों को सुधारने की पहल न करे तो द्विविधा पूरे राष्ट्र की नियति बन जाती है।भारतीय लोकतंत्र के सफर में आपातकाल वह काला अध्याय है, जब सत्ता द्वारा शक्ति का दुरुपयोग कर मूल्यों व जनाधिकारों के एक-एक दीपक को पाबंदियों की चादर से ढाँप दिया गया था। 25 जून 1975 से अगले 21 महीने तक तानाशाही ने लोकतंत्र को दबोचे रखा। इतिहास के इस दाग का स्मरण सालों से अनेक मंचों और प्रसार माध्यमों पर किया जाता है।

आज यह सर्वविदित है कि इंदिरा ने निजी महत्वाकांक्षा में देश पर आपातकाल थोपा था। सत्ता बरकरार रखने के लिए पाँच संशोधनों के द्वारा संविधान और लोकतंत्र का गला घोंटने के साथ ही समस्त विपक्षी दलों और संगठनों का अन्यायपूर्वक दमन किया गया। लेकिन, आज आपातकाल पर हो रहा विमर्श भी व्यक्ति और संस्था पर केंद्रित होने के कारण स्वार्थ और महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहा है। किसने कितनी जेल काटी, किसका कितना शोषण हुआ, मौलिक अधिकारों का स्थगन, मीडिया पर कठोर पाबंदी, संविधान में मनमाना बदलाव और जबरिया नसबंदी जैसे विषय ही आपातकाल का विवरण और तथ्य बनकर रह गए हैं। जबकि आपातकाल से हीरो बने अनेक निर्धन नवयुवक आज देश व राज्यों की राजनीति के न सिर्फ तारणहार हैं बल्कि स्वयं अरबों की संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं। इंदिरा को भ्रष्टाचारी बताकर नेता बने कुछ लोग आज खुद भी भ्रष्टाचार के आरोपी हैं या घोटालों की सजा काट रहे हैं।आपातकाल की बरसी का एक कटु सत्य यह भी है कि राजनीतिक स्वार्थ में वर्तमान पीढ़ी तक इसका वर्णन अब व्यक्ति और संस्था विशेष पर अत्याचार के रूप में हो रहा है। पार्टियाँ और नेता जनाधिकारों की रक्षा में मिली प्रताड़ना का परोक्ष रूप से प्रतिफल भी मांग लेते हैं। वहीं व्यक्ति और संस्था पर अत्याचार के शोर में आपातकाल के दौरान भारत राष्ट्र की आत्मा पर हुए आघात की ध्वनि आज पूरी तरह दब चुकी है।

इमरजेंसी के बाद बनी जनता पार्टी सरकार में इंदिरा गांधी एक सप्ताह के लिए जेल गयीं और जनाक्रोश तृप्त हो गया। मौलिक अधिकारों की पुनः बहाली से जन सामान्य का असंतोष भी जाता रहा। न्यायालयों के अधिकार वापस हुए, मीडिया पर लगी पाबंदी हटा दी गयी और इस प्रकार समाज के सभी वर्ग और घटक अपने-अपने स्तर पर अंतुष्ट हो लिए। क्योंकि कहीं न कहीं हमारा समाज प्रत्येक विषय और घटना को व्यक्तिगत स्तर पर ही लेता-समझता है, राष्ट्र के स्तर पर नहीं।आत्मसंतुष्टि से तृप्त समाज भूल गया कि आपातकाल में संविधान का 42वाँ संशोधन भी किया गया था, जिसे लघु संविधान या मिनी कॉन्स्टिट्यूशन कहा जाता है। यही वह संशोधन था, जिसके कारण देश-विदेश में ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ इंडिया’ को ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ इंदिरा’ तक पुकारा गया। 1976 के 42वें संशोधन के द्वारा संसद, कार्यकारिणी, न्यायतंत्र, संघवाद, मौलिक अधिकार, राज्य के नीतिनिर्देशक सिद्धांत, मौलिक कर्तव्य, सातवीं अनुसूची व न्यायाधिकरण के साथ ही संविधान की प्रस्तावना में मनमाने बदलाव किए गए। इसमें सबसे अहम था संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़। क्योंकि जिस कालखंड में इसे बदला गया, स्वयं तत्कालीन केंद्र सरकार उसे असामान्य काल के रूप में स्वीकार रही थी। अन्यथा इमरजेंसी लगाने की आवश्यकता ही क्या थी? ऐसे विपत्ति काल में संविधान की प्रस्तावना को छुआ जाना स्वयं में एक असंवैधानिक कृत्य था।जब देश की सभी संस्थाओं के हाथ-पांव बांध दिए गए थे, ऐसे समय पर प्रस्तावना में परिवर्तन के निर्णय को तत्कालीन तानाशाह सरकार की सदाशयता क्यों मान लिया गया? इसके पीछे किसी वर्ग, शक्ति या समूह के साथ किसी गुपचुप समझौते या तुष्टिकरण की बू समाज को क्यों नहीं आयी? जिस देश ने धार्मिक कट्टरता के कारण अपना एक चौथाई भू-भाग गंवाया हो। जहां धार्मिक वैमनस्य के आधार पर लाखों मूल निवासियों और बहुसंख्यकों को हत्याएं, अनाचार और पलायन झेलना पड़ा हो।

ऐसी अमानवीय घटनाओं के बाद वह देश जब अपना संविधान लिखने बैठा होगा तब निश्चित रूप से इतिहास के संदर्भ और स्मृति समूची संविधान सभा के मस्तिष्क व हृदय में विद्यमान रही होगी। देश भर के तीन सौ विद्वानों की विशेषज्ञ सभा ने लगभग तीन वर्ष का समय लेकर 18 समितियों, तीन वाचन और 11 अधिवेशनों के उपरांत संविधान की मूल प्रस्तावना तैयार की थी, जिसे एक ताहाशाह सरकार ने बिना जन सहमति के बदल दिया। प्रस्तावना में परिवर्तन देश की जनता का मुद्दा है और इसपर पहले जनता से ही राय ली जानी चाहिए थी। पंथ-निरपेक्षता या समाजवाद जैसे विचार राजनीतिक दलों के मेनुफेस्टो के माध्यम से बहुमत बनकर संसद की स्वीकृति प्राप्त करते तो यह स्वस्थ लोकतंत्र का व्यवहार माना जाता। कांग्रेस और उसके समर्थक आज भी यही दावा करते हैं कि 42वें संशोधन में जोड़ा गया ‘सॉवरेन सोशलिस्ट सेक्युलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ शब्द गांधी-नेहरू के विचारों और देश की उदारता का प्रतीक है। जबकि सत्यता यह है कि पूरी प्रस्तावना में कुछ जोड़ा नहीं गया बल्कि पूरी प्रस्तावना ही बदल दी गयी है। मूल प्रस्तावना का एक-एक शब्द शेष सभी शब्दों से न सिर्फ जुड़ा हुआ है बल्कि वाक्य के शब्द एक-दूसरे के सम्पूरक हैं।

गेंदे के फूल की तरह ही प्रस्तावना के शब्द साथ मिलकर एक दर्शन सूक्त की स्थापना करते हैं। भारत के संविधान की प्रस्तावना का मौलिक संकेत है कि संविधान की सत्ता का स्रोत भारत की जनता में निहित है। आपातकाल जैसे कालखंड में देश और जनता को बंदी बनाकर कोई अराजक सत्ता यदि संविधान की आत्मा पर कुठाराघात करे तो तानाशाही की समाप्ति पर नई सत्ता द्वारा सर्वप्रथम उस निर्णय को पलटा जाना चाहिए था, जो दुर्भाग्यवश नहीं हुआ। 1978 के 43वें और 44वें संशोधन के माध्यम से व्यक्ति और संस्था के सभी अधिकार लौटा दिए गए पर स्वयं संविधान को न्याय नहीं मिल सका। निजी हित और स्वार्थ में डूबे सक्षम समाज और राजनीति ने इस आघात की आने-अनजाने पूरी अनदेखी की और एक समयावधि के बाद कुछ आभासी शब्द संविधान बनकर देश की नियति बन गए।आज स्थिति यह है कि संविधान की प्रस्तावना में बदनीयती से किए गए बदलाव के विरुद्ध मुखर होना राजनीतिक दलों के लिए भी एक दुस्साहस के समान है। इसपर बोलते ही सत्ता के समीकरण बिगड़ जाने का जोखिम है, जिसे कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने सिर पर नहीं लेना चाहती। संविधान की मूल प्रस्तावना का पुनर्स्थापन आज एक असम्भव जैसा विचार है क्योंकि इसके साथ हुई छेड़छाड़ को समय रहते दुरुस्त कर सकने योग्य लोगों में राष्ट्रीय हित के प्रति अपेक्षित इच्छाशक्ति बहुमत में नहीं थी।

Continue Reading

संपादक - कस्तूरी न्यूज़

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in कस्तूरी स्पेशल

Advertisiment

Recent Posts

Facebook

Trending Posts

You cannot copy content of this page