राजनीति
हरीश रावत ने यशपाल को क्या घुट्टी पिलाई?
मनोज लोहनी
विधानसभा चुनावों में हरीश रावत-यशपाल रावत का सिक्का क्यों नहीं चला? क्या चुनावों से पहले भाजपा छोड़ कांग्रेस में आने के लिए यशपाल आर्य को हरीश रावत ने कुछ समझाया था? बनी बनाई सरकार भाजपा की और क्यों यशपाल ने बेटे के साथ भाजपा छोडऩा ठीक समझा? हरीश रावत खुद इतने बड़े अंतर से हारे, यशपाल आर्य बमुश्किल जीते और उनके पुत्र संजीव को नैनीताल सीट से हार का सामना क्यों करना पड़ा? विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद अब जनता के बीच ऐसी गॉशिप आम है। यह तो मानना पड़ेगा कि हरीश रावत एंड कंपनी ने प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल तो बना ही दिया था। मगर साबका यहां भाजपा से ही था। शायद यह मन में बात रही होगी कि प्रदेश में हर बार सत्ता परिवर्तन होता है, इस बार भी होगा। एंटी इंकंबेंसी फैक्टर भी होगा। उधर किसान आंदोलन चल रहा था और भाजपा के खिलाफ किसान एक थे। तराई में भी माहौल भाजपा के खिलाफ था, तो वहां यह बात चल पड़ी होगी कि बाजपुर जैसी जगह से भाजपा में जीत मुश्किल है। हरदा ने यशपाल आर्य के सम्मान में कसीदे भी पड़े और यहां तक कहा कि यशपाल आर्य में प्रदेश को संभालने की क्षमता है। जाहिर है दोनों के बीच की कैमिस्ट्री बहुत ठीक थी। इसीलिए यशपाल आर्य ने समझा कि भाजपा को अलविदा कर प्रदेश में सरकार बनाने जा रही कांग्रेस के साथ ही चला जाए। उन्हें हाथों-हाथ लिया गया। उनके साथ ही हरक सिंह रावत को भी पार्टी ने कांग्रेस में जगह दी। हरक सिंह की तो कांग्रेस में आना मजबूरी थी, खुद चुनाव नहीं लड़े और बहू चुनाव हार गईं। खैर, कहीं न कहीं हरीश रावत और यशपला ने ही तय किया होगा कि हरक सिंह को भी कांग्रेस में ले लिया जाए, सरकार तो हमारी बन ही रही है। यशपाल ने तब एक बड़ा निर्णय ले लिया जब उन्होंने तय किया कि अब भाजपा को अलविदा कहने का वक्त आ गया है। सामने हरीश रावत थे जिन्होंने खुद को हाईकमान के सामने दबाव बनाकर चुनाव संचालन समिति का अध्यक्ष घोषित किया। तो बाजी ठीक ही खेली थी, मगर राजनीति में कब क्या हो जाए पता नहीं। कुझ निर्णय लेने के बाद पछताना पड़ता है और कुछ निर्णय ठीक होते हैं। इधर कांग्रेस में यशपाल जैसे नेताओं की वापसी हुई तो एक निर्णय कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने भी लिया। उन्होंने कांग्रेस छोड़ भाजपा ने आने का निर्णय लिया, टिकट भी लिया और चुनाव भी जीत गए। राजनीति में निर्णय लेने की क्षमता तो होनी ही चाहिए, इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। शायद यशपाल आर्य के साथ भी यही हुआ है। हालांकि यशपाल चुनाव जीत गए, संजीव आर्य के सामने अभी तो आसमान खुल है। अब आगे क्या होता है, यह वक्त की धुरी पर निर्भर है, राजनीति में तो यह सब चलता ही है। समाप्त।
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