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गढिय़ा, गढिय़ा के हुए, मोहन के सुभाष, त्रिवेंद्र मीराज में मिले, ‘भगत’ बने गजराज

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मनोज लोहनी

देवभूमि में यह रण कांग्रेस और भाजपा के बीच है। इस रण के पात्र विधायकी के वह दावेदार हैं जिनके हाथों में पाटीज़् ने अपना सिंबल रूपी हथियार दिया, जिससे वह अपने राजनीतिक शत्रु को परास्त कर सकें। मगर राजनीति की इस महालीला में दूसरे को हथियार दिए जाने से अपने ही नाराज हुए तो लीला में ट्विस्ट आना अवश्यंभावी था। ‘सिंबल रूपी इस इस हथियार पर पहला अधिकार हमारा हैÓ, परंतु इस रण में यह हथियार तो एक ही को मिल सकता था। इस विकट परिस्थिति में हथियार नहीं मिलने से कई रणबाकुरे विचलित हो गए, तो उन्होंने स्वयंमेव ही खुद का उद्धार करने का रास्ता चुना। स्वयंमेव होने का यह रास्ता उनका एक अदृश्य अस्त्र भी था, जिससे यह भी सिद्ध करना था कि उनका स्वयंमेव शस्त्र, पार्टी सिंबल से भी पार पा सकता है। किंचित भी भय न दिखा, उन्होंने अपने अदृश्य अस्त्र को निकाला तो पाटीज़् से विमुख होने की वायु बहुत वेग से बहने लगी। कदाचित यह वायु वेग अब दलों के शीर्षस्थों को विचलित करने वाली थी। इस वेग के केंद्र में कपकोट में स्वयं शेर सिंह थे तो शिवस्थली जागेश्वर में सुभाष पांडेय। शेर सिंह गढिय़ा ने विरोध में सिंह गर्जना की तो सुभाष पांडेय भी अपनी निर्दल लीला दिखाने को आतुर थे। मगर मुखिया ऐसा कहां होने देते, तो तय हुआ कि दोनों को अपने बगावत के अस्त्र वापस लेने को मनाया जाएगा। अब पुष्कर (नील कमल) की कोशिश दोनों के विमुख वायु वेग को पुष्कर में ही समा देने की थी। यह बात भी करीब तय ही थी कि केवल राज्य का राजा ही ऐसा कर सकते हैं और हुआ भी यही। पुष्कर सिंह धामी जब दोनों के पास पहुंचे तो इस रण का अंत यह हुआ कि शेर सिंह गढिय़ा, सुभाष पांडेय दोनों ही कमल की राह चलते हुए सुरेश गढिय़ा और मोहन सिंह मेहरा के साथ-साथ राजा की अगुवाई में देवभूमि के रण में विरोधियों के विरुद्ध एक हो गए। राज्य के कई स्थानों पर दूसरे दलों के साथ भी यही लीला चली। लालुकआं में हरीश में हरीश समा गए। मगर अभी कालाढूंगी विधानसभा में यह लीला जारी थी। यहां कमल के साथ बगावत की सिंह गर्जना के केंद्र में स्वयं गजराज थे जो २००७ से कमल पाने के प्रयास में हैं। उन्हें मनाने यहां तब के राजा त्रिवेंद्र पहुंचे जब गजराज स्वयं उनके मंत्री थे। गजराज की गर्जना रविवार को यहां महापंचायत के रूप में हुई तो इस गर्जना के स्वर राजधानी तक भी पहुंचे। मंत्रणा हुई तो गजराज को मनाने उन्हीं त्रिवेंद्र को भेजा गया जिन्होंने अपने राजपाठ में गजराज को पूरा सम्मान दिया। इस मंत्रणा का परिणाम यह हुआ कि गजराज भी आखिरकार अपने समय के राजा की बात मानकर इस वक्त के राजा के साथ चलने को तैयार हो गए और अंतत: गजराज ने पार्टी का ‘भगतÓ बनना ही ठीक समझा।

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संपादक - कस्तूरी न्यूज़

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